सुभाष राय का जन्म जनवरी १९५७ में उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ के गांव बड़ागांव में हुआ। आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर पी-एच.डी.। अमृत प्रभात, आज, अमर उजाला, डीएलए, डीएनए जैसे प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियां संभालने के बाद इस समय लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत।
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सिपाही सोचता नहीं। उसे बताया जाता है कि उसे सोचना नहीं है, उसे सिर्फ करना है। उसके हाथ में बन्दूक थमा दी गई है। वह पूरी तरह लोडेड है। उसकी पेटी में और भी कारतूस हैजरूरत पड़ने पर वह उनका इस्तेमाल कर सकता है। उसे ट्रेनिंग दी गई है। पूरी तरह फिट रहना सिखाया गया है। उसे निशाने पर सही वार करना भी बताया गया है। उसे लड़ने की सारी कला सिखाई गई है। बचना भी बता दिया गया है। अब वह रणभूमि में है। असली जगह, असली प्रयोगशाला में। उसे केवल अपना काम करना है, लड़ना है। दुश्मन की पहचान भी उसे बता दी गई है। हुक्म दे दिया गया हैअब उसे सोचना नहीं है। अपना सारा समय दुश्मन को पराजित करने या उसे मार देने में लगाना है। अगर वह सोचने लगा तो हो सकता है, शत्रु के हाथों मारा जाए, गंभीर रूप से घायल हो जाए। सोचने से उसे नुकसान हो सकता है। सोचने का काम दूसरे लोग कर रहे हैं इसलिए इस पचड़े में उसे नहीं पड़ना है। अगर उसने ऐसा किया तो उसकी जान जा सकती है, वह मेडल से वंचित हो सकता है, वह देश के लिए कलंक साबित हो सकता है।
हर सिपाही को ऐसा बता दिया जाता है। असल में सेना या पुलिस में हर मातहत अपने अधिकारी के सामने सिपाही की ही तरह व्यवहार करता है। चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी क्यों न हो, वह अपने बॉस के आगे अदने सिपाही की ही तरह होता हैउसे सिर्फ सुनना होता है, सवाल की अनुमति नहीं होती। जो सुनता है, उसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं होता। यही अनुशासन हैसवाल करना अनुशासनहीनता है और ऐसा करने से वर्दी जा सकती है। सेना और पुलिस का यह अनुशासन धीरे-धीरे पत्रकारिता में भी प्रवेश कर रहा है, इसलिए कि यहाँ भी सभी रणभमि में हैं। संकट यह है कि सभी बिना हथियार के हैं। अपने लिए हथियार भी तलाशना है, लड़ाई भी करनी है और जीतनी भी है। हारे तो बाहर होंगे, बचेगा केवल हरिनाम। लड़ाई भी अपनी- अपनी। मदारी की तरह भीड़ जुटानी है, कैसे, यह आपको तय करना है। मदारी चौराहे से थोड़ा हटकर बैठ जाता है, डमरू बजाता है, जोर की आवाज लगाता हैजब कुछ लोग उसे घेरकर खड़े हो जाते हैं तो सांप की खाल हाथ में लहराता हुआ ऐलान करता है कि सभी साँस रोके खड़े रहें, अभी थोड़ी देर में यह मरा हुआ सांप हुँकार कर उठ खड़ा होगा। बस थोड़ी ही देर में, हाँ थोड़ी ही देर में। फिर जोर का डमरू बजाता है। भीड़ बढ़ती जाती है, वह बीच-बीच में अपने सधे हुए बन्दर को कटोरे के साथ लोगों के पास दौड़ाता है और बार-बार ज्यादा से ज्यादा ऊँची आवाज में सांप के उठ खड़े होने की याद दिलाता है। लोग आते रहते हैं, जाते रहते हैं। भीड़ बनी रहती है। बंदर पैसा इकट्ठा करता रहता है। खेल-तमाशे के आखिर तक सांप की खाल फन फैलाकर खड़ी नहीं होती। खेल खत्म हो जाता है, मदारी अपना झोला उठाता है और दूसरे ठिकाने की ओर चल पड़ता है।
कुछ ऐसा ही खेल आजकल पत्रकार भी खेल रहे है। भीड़ जुटानी है, ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाने हैं, अधिक से अधिक पाठक जुटाने हैं। कलम की इस दनिया में बने रहने की यह एक अनिवार्य शर्त है। दिन भर दिमाग में यही चल रहा है कि भीड़जुटाऊ खवर क्या हो सकती है, कहाँ मिल सकती है। कोई श्मशान की ओर भागा जा रहा हैपता चला है कि वहां एक तांत्रिक आया है, वह मुर्दे खाता है, पंचाग्नि के बीच बैठा रहता है। किसी ने बताया कि वह जिसे अपने हाथ से भस्म दे दे, उसका कल्याण हो जाता है, बड़ा से बड़ा काम हो जाता है। कोई राजधानी से सौ किलोमीटर दूर एक गाँव की ओर निकल पड़ा है। किसी ने फोन पर बताया कि वहां एक दिव्य बालक का जन्म हुआ है। उसका मुंह घोड़े जैसा है, उसका दिल पसली के बाहर एक पतली झिल्ली में लटका हुआ है और वह धड़कता हुआ साफ दिख रहा है। उसके सर पर एक भी बाल नहीं है पर वहां लाल त्रिशूल बना हुआ है। वह साक्षात् अवतार लगता है, ऐसा अवतार, जिसमें नर और पशु दोनों एक साथ परिलक्षित हो रहे हैं। कोई शहर के बड़े होटल की ओर सबसे पहले पहुँचने की कोशिश में है। खबर है कि वहां एक बाबा छिपा हुआ है, जो भगवा की आड़ में सेक्स रैकेट चलाने का आरोपी है। सुना जा रहा है कि उसके कुछ बड़े नेताओं से भी रिश्ते हैं। सभी कुछ ऐसा ढूंढ रहे हैं, जो ब्रेकिंग न्यूज बन सके और जिसके चलते सारी जनता उसके चैनल की दीवानी हो जाए। वाह क्या जलजला लेकर आया, मजा आ गया, शाबाश। प्रिंट का भी यही हाल है। फैशन शो में किसी की चड्डी सरक गई, किसी की चोली फट गई, इससे बड़ी खबर क्या हो सकती है। किसी बदमाश, डकैत ने मंदिर में मां को सोने का मुकुट चढ़ाया है। शहर के उम्रदराज मशहूर नेता की कमसिन बीवी पहली बार माँ बनी है, उसके घर हिजड़े जमा हो गए हैं और वे बच्चे की माँ के कान में पड़े सोने के कुंडल से कम कुछ लेने को तैयार नहीं हैं।
सिपाही पत्रकार बेचारे क्या करें, संपादक ने कहा है, कुछ ऐसा ले आओ, जो धूम मचा दे, बिजली गिरा दे, धुआं कर दे। कुछ ऐसा ले आओ, जो लोगों को बेचैन कर दे, उनकी नींद हराम कर दे। कोई धोबियापाट आजमा रहा है, कोई चकरी तो कोई जांघघसीटा। सबके अपनेअपने दांव, दांव पर दांव। होड़ है कि कुछ इंनोवेटिव करो, कुछ ऐसा करो, जो अभी तक नहीं हुआ। याद करो लक्ष्मण जब परशुराम से नाराज हुए थे तो अपनी ताकत का बयान करते हुए कहा था-कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊँ, कांचे घट जिमी दारिउ फोरी। है न कमाल की बात। अरे भाई जब ब्रह्माण्ड को ही उठा लेंगे तो खड़े कहाँ होंगे? वाजिब सवाल है पर किसे नहीं पता कि वे शेषनाग के अवतार हैं। उन्हीं के फन पर धरती टिकी हुई है, उन्हें तो वस फन हिलाना भर है, प्रलय मच जाएगी। फिर कोई पूछे कि धरती उनके फन पर है तो वे शेषनाग कहाँ टिके होंगे तो क्या जवाब दिया जाएगा? अरे एक बार भीड़ * जुटा लो यार, कोई ठेका थोड़े ही ले लिया है हर सवाल का जवाब देने का। हर बार नए तरीके अपनाओ और सवालों को नजरंदाज करो। यह आज के संपादकों का गुरु मन्त्र है। वे भी क्या करें, बेचारे फंस गए हैं। एक वार मीडिया में आ गए तो आ गए। एक बार संपादक हो गए तो हो गए। वे ही जानते हैं कितने पापड़ बेलने पड़े। अब किसी भी तरह इस पद पर बने रहना है। और यहाँ बने रहने का एक ही उपाय है, धंधे को बढ़ाते रहना। उसके लिए जो कुछ करना पड़ेगा, करेंगे। जव बॉस का ये चिंतन है तो बेचारा अदना जर्नलिस्ट क्या करे। उसे तो वॉस को खुश रखना हैजव तक बॉस खुश तब तक नौकरी पक्की, बॉस ज्यादा खुश तो प्रमोशन के भी मौके। ऐसे में सोचने की बेवकूफी कौन T? उसने जैसा कहा वैसा ही करो। सोचो मत।
आज की पत्रकारिता का यह सबसे बड़ा संकट है। जो सोचने वाले लोग हैं, उनकी जरूरत नहीं है। क्योंकि वे कई वार असहमत हो सकते हैं, नए सुझाव दे सकते हैं। ज्यादा चिंतनशील हैं तो जनहित की बात उठा सकते हैं, मीडिया की जिम्मेदारियों पर बहस छेड़ सकते हैं, उसकी जवाबदेही पर उंगली उठा सकते हैं। मैं नहीं कहता कि ऐसी आवाजें खत्म हो गई हैं, पर कमजोर जरूर पड़ गई हैं। वे परदे पर मौजूद हैं। उन्हें भी खड़े रहने के लिए धन की जरूरत होगी, उन्हें भी अपनी दूकान तो देखनी ही है। एक मसीहा को भी सच बोलने के लिए अपना पेट भरना ही पड़ता है। भूखा रहेगा तो बोलने के पहले ही मूर्छित हो सकता है, मर भी सकता है। जीना और चलने की ताकत रखना सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने की दिशा में बढ़ने की पहली शर्त है। जिस तरह राजनेताओं के लिए समाज और देश की प्रगति, उन्नति को नजर में रखना जरूरी माना जाता है, उसी तरह पत्रकारों के लिए भी होना चाहिए। खबरों के चयन और प्रस्तुति का नजरिया किसी व्यक्ति या किसी धंधे का मोहताज न होकर व्यापक चिंतन और सुचिंतित दृष्टि से संचालित होना चाहिए, तभी पत्रकार सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों से आक्रामक ढंग से जूझ सकेगा, तभी इस लड़ाई के दौरान आने वाले लोभ और आकर्षण से वह खुद को बचा पाएगा।
किसी भी समाज में मीडिया की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। न केवल समाचारों को बिना किसी रंग के पूरी वस्तुनिष्ठता से लोगों तक ले जाने में बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गत्यात्मकता को, इन क्षेत्रों में छोटे से छोटे परिवर्तनों के निहितार्थ एवं संभावित परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक करने में। आजादी की लड़ाई को ताकत देने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अब वह हाल नहीं है। मीडिया का चेहरा बहुत बदल गया है। खासकर हिंदी मीडिया की दशा-दिशा तो बहुत ही चिंतनीय है। हिंदी के पाठक की जरूरत से पूरी तरह अनजान कुछ खास किस्म के अंग्रेजीदा प्रबंधक तय कर रहे हैं कि हिंदीवालों को क्या पढ़ना चाहिए। वे यह प्रचारित भी कर रहे हैं कि वे जो सामग्री अखबारों में परोस रहे हैं, वही और सिर्फ वही लोग पढ़ना चाहते हैं। उन्होंने कभी कोई सर्वे नहीं किया, कभी पढ़ने वालों से जाकर पूछा नहीं कि वे जो सोच रहे हैं, वह सही है भी या नहीं। उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं है। उनका मंसूबा ही कुछ और है। वे तो पूंजी के खेल के हिस्से भर हैं, मीडिया के विशाल कारोबार में छोटे-मोटे पुर्जे भर हैं। वे पूंजी के वफादार सिपाही हैं। वे कुछ ऐसा चमत्कार करने की कोशिश में हैं कि ज्यादा से ज्यादा लाभ के हालात बने । यह कमाई पाठकों के अखवार खरीदने से नहीं हो सकती, यह तो केवल और केवल विज्ञापन से हो सकती है। परंत विज्ञापन आए, इसके लिए पाठकों की तादाद ज्यादा से ज्यादा होनी चाहिए। जाहिर है वे अपना सर्कुलेशन बढ़ाना तो चाहते हैं लेकिन इसलिए नहीं कि उन्हें हिंदी की या पाठकों की बहुत चिंता है बल्कि इसलिए कि वे अधिकतम विज्ञापन समेटना चाहते हैं। पाठक संख्या बढ़ाने के तमाम खेल हैं, उसका अखबारों की सामग्री ? और पाठकों की पसंद से कोई वास्ता नहीं। इस होड़ में पिछले कुछ वर्षों में समाचारपत्रों ने न केवल अपने मूल्य बेतरह घटाए हैं बल्कि तमाम तरह के इनामों के लालच भी पाठकों को देने शुरू कर दिए हैं। वे पाठक को अब पाठक नहीं ग्राहक समझते हैं और उसे मूर्ख बनाकर या ललचाकर खरीद लेना चाहते हैं।
मीडिया के जरिए पूंजीवादी ताकतें खतरनाक षडयंत्रकारी भूमिका भी निभा रही हैं। अखबारों में ऐसी खबरें या टिप्पणियाँ बहुत कम नजर आती हैं, जो जनता को जगा सके, जनचेतना को धारदार बना सके। एक तरफ सत्ता और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ जाने वाली ज्यादातर सूचनाओं को दबाने की कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर नाच-गाने, मौज-मस्ती, माल-टाल की चकाचौंध में उलझाकर आदमी को निष्क्रिय और निस्तेज बनाने का अभियान चलाया जा रहा है। मीडिया प्रतिपक्ष की अपनी भूमिका भूलकर सत्ता प्रतिष्ठानों के आगे दुम हिलाता दिखाई पडता है। व्यवसाय कोई बुरी चीज नहीं है, विज्ञापन भी अपना सूचनात्मक महत्व रखता है, समाज को उसकी भी जरूरत हो सकती है, लेकिन इन्हें लूट, धोखा और झूठ की सीमा तक नहीं जाना चाहिए। कहना न होगा कि विज्ञापनों की दुनिया में फरव भरा पड़ा है। मीडिया का इसका चिता ज्यादा है. अपने पाठकों की कम। यह अधरा सच होगा. अगर पाठको को कमयह अधूरा सच होगा, अगर कहा जाय कि पाठक अखवारों की सामग्री से संतुष्ट है, उसे किसी और चीज की तलाश नहीं है। पिछले दो सालों में मुझे एक बिल्कुल नया अनुभव हुआ कि अखबारों ने साहित्य, कला और संस्कृति को दुनिया की जिस तरह व्यवसाय की दृष्टि से प्रतिगामी मानकर त्याग दिया है, ज्वलंत सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर बातचीत के लिए मंच उपलब्ध कराने को फिजूल मानकर पल्ला झाड़ लिया है, वह उनके प्रतिकूल गई है। इन सामग्रियों के पाठकों की कमी नहीं है। लोग ऐसी सामग्री चाहते हैं। इस जरूरत को तमाम लघु पत्रिकाएं पूरा कर रही हैं।
हिंदी समेत सभी भाषाओं में अनेक ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो कविता, कहानी, संस्मरण, नाटक, समीक्षा और कला के अन्य रचनात्मक आयामों को प्रस्तुत करती रहती हैं, उन पर बात भी करती रहती हैं। राजनीति हमारे जीवन की नियंता बनी हुई है। उस पर बात होनी ही चाहिए, उसके दांव-पेच पर बात करने वाली पत्रिकाओं की भी कमी नहीं है। ऐसी पत्रिकाएं चटनी की तरह साहित्य और कला पर भी थोड़ी-मोड़ी सामग्री परोसती रहती हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया खबरों के अलावा सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करता तो है लेकिन उसकी प्रस्तुति या तो मनोरंजनात्मक होती है या फिर दर्शक संख्या बढ़ाने को लक्षित। समाज को बांटने और दरार पैदा करने वाले तमाम जटिल और लंबे समय से अनसुलझे सवालों पर आज के समय में गंभीर बातचीत की जरूरत है। हमारे अंचलों की, जनपदों की, गाँवों की बहुत उपेक्षा होती आयी है, अब भी हो रही है। उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को न अखबार जगह देते हैं, न साहित्य और राजनीति की ये पत्रिकाएं। कई बार तो उनकी ओर तब ध्यान जाता है, जब वहां से उठी लपटों की आंच राजधानियों को झुलसाने लगती हैं। मेरा मानना है कि ऐसी एक पत्रिका की जरूरत है जो इन मसलों को उठाए, जिसमें साहित्य और कला के लिए भी जगह हो और जो गंभीर सामाजिक और बुनियादी सवालों पर विमर्श का एक सशक्त मंच भी बन सके, साथ ही जो हिंदीभाषी प्रांतों के विभिन्न अंचलों और जनपदों की भी खोज-खबर ले सके। पर भाई यह कोई आसान काम नहीं। सबसे बड़ा संकट है इसका अर्थतंत्र। मुझे नहीं मालम वह कैसे बनेगा, कैसा बनेगा पर न जाने क्यों एक भरोसा है कि बनेगा, जरूर बनेगा। यह भरोसा क्यों है, में यह भी नहीं जानता। हो सकता है आप के ही प्रयास से बात बन जाये। बिना आप की मदद के यह काम पूरा नहीं हो सकता।
सम्पर्क : डी-१/१०९, विराज खंड, गोमतीनगर, लखनऊ
संपर्क: ९४५५०८१८९४