कहीं कविता न है कोई कहानी
तेरी आंखों से फिर भी इतना पानी?
अकेलापन पढ़ा करती थी मां भी
वहीं का रोग है यह खानदानी
गिनाना-गिनना ना-उम्मीदियों का
मरे पौधों की जैसे बागबानी
कुलम को थाम कर जितना भी रक्खो
बदल जाती है लिखने में कहानी
लहरती हैं तेरी बादल-सी जुल्फे
तो धरती हो के रह जाती है धानी
मेरे अश्आर ही लिखते हैं मुझ को
सुना है मैंने लफ्जों की जुबानी
बदल देती है कविता आदमी को
ये कहते थे ‘फ़िराके-आं-जहानी'..
‘फिराके-आं-जहानी' - स्वर्गवासी ‘फ़िराक'।