रेत को, खून को रवानी को
प्यास ही जानती है पानी को
कितने मौसम बिगड़ते-बनते हैं
इक हरापन की तर्जुमानी की
पढ़ती रहती है जिंदगी हमको
हम उसी की किसी कहानी को,
कुछ तो मैं भी न छोड़ पाऊँगा
जैसे अम्मा की धूप-दानी को
लिखनी होती है इक जुवान हमें
पढ़ना होता है बे-जुबानी को
हुक्मरानी तो खैर है ही बुरी
पर, सहे जाना हुक्मरानी को?
खुद कहानी-सी होती जाती थी
मां सुनाती थी जब कहानी को
सूखा-सूखा है दूर तक मौसम
आंख-भर ही बचा ले पानी को
अश्क जी, कितने खाली-खाली हो
छोड़कर अपनी बोली-बानी को