संस्कृति - किन्नर - एस. आर. हरनोट

जन्म : हिमाचल प्रदेश के जिला शिमला की पंचायत व गांव चनावग में 22 जनवरी, 1955 शिक्षा : बी.ए. (ऑनर्स), एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता, लोक सम्पर्क एवं प्रचार-प्रसार में उपाधि पत्र, नौकरी के साथ-साथ। आजीविका : हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम में उप महा प्रबन्धक (प्रचार एवं सूचना) के पद से सेवा अवकाश। प्रकाशित कृतियां : 11 कहानी संग्रह, अंग्रेजी कहानी संग्रह (सरोज वशिष्ठ द्वारा अनुदित) । उपन्यास : हिडिम्ब। हिमाचल की संस्कृति और जनजीवन पर पांच पुस्तके, कई सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद।


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थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग किन्नर/किन्नौरा जनजाति की अस्मिता पर संकट है। किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ, वेद-पुराण, उपनिषद, शब्द कोष, साहित्य-कृतियों में 'किन्नर' शब्द 'थर्ड जेंडर' के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ है। जो लोग इस शब्द को इस विपरीत अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, वह अज्ञानतावश है।


   इससे पूर्व कि किन्नर शब्द पर विस्तार से बात की जाए, पहले किन्नौर के इतिहास का संक्षिप्त ब्यौरा आपको देना आवश्यक है। प्राचीन काल में किन्नौर ‘किन्नर देश' से जाना जाता था। वह देश जो कालान्तार में बाणासुर के आधिपत्य में राजपूर्ण के नाम से रहा, जिसे किन्नर, कनौर, कनावर, कुनावर और कनोरिंग इत्यादि नामों से जाना जाता रहा, चीनी नाम से जो १९६० तक महासु जिले की एक तहसील रही, लामा लोग जिसे खूनु, कुरपा और माऊन नाम से भी पुकारते रहे, पौराणिक नदी शोणित अथवा शतदू (वर्तमान सतलुज) जिसकी धरा को हमेशा सींचती और हरियाती रहती है, बास्पा और स्पिति नदियां जहां अपना वर्चस्व समाप्त कर देती है, जिसकी चोटियां ७५० मीटर से ७००० मीटर तक आसमान को स्पशर्ती नजर आती है, जिसके पूर्व में पश्चिमी तिब्बत, दक्षिण में उत्तर प्रदेश का टिहरी गढ़वाल तथा उत्तरकाशी क्षेत्र और जिला शिमला का डोडरा क्वार व रोहडू जनपद, दक्षिण पश्चिम में रामपुर बुशहर, पश्चिमोत्तर में कुल्लू-मनाली और उत्तर में लाहुल-स्पिति अवस्थित है। जिस भूमि पर अनेक पापों से छुटकारा पाने की दृष्टि से आज भी लोग किन्नर-कैलाश के चारों और आठ-नौ दिनों की पैदल यात्रा अर्थात परिक्रमा करते हैं एवं जिस नैसर्गिक छटा से परिपूर्ण वसुन्धरा को महान् पण्डित राहुल सांकृत्यायन ने किन्नर देश से अलंकृत किया है- वही प्राचीन देश आज हिमाचल प्रदेश का अति सुन्दर, सीमान्त और जनजातीय जिला ‘किन्नौर' कहलाता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि 'ईसापूर्व तीसरी सदी में किन्नौर के लोगों का अशोक के साम्राज्य से सम्पर्क था। किन्नौर हमेशा बुशहर से जुड़ा रहा इसलिए बुशहर- किन्नौर राज्य का पश्चिम हिमालय के इतिहास में बहुत बड़ा स्थान माना जाता है। यह राज्य पूर्व में गंगा यमुना के उद्गम और पश्चिम में चन्द्रा और भागा नदियों के स्त्रोत तक विस्तृत हुआ करता था। एक प्रचलित संस्कृत पंक्ति में यह तथ्य प्रमाणित भी हो जाता है- चन्द्रभागा नदी तीरे अहोति किन्नरतदा। इस राज्य से सम्बन्धित कई वंशावलियां उपलब्ध हैं जिसके अनुसार बुशहर-किन्नौर पर १२२ राजाओं ने राज्य किया था। इस राज्य को कुल्लू से भी पुरातन माना जाता है। इन राजाओं से पूर्व भी किन्नौर-शहर खंड अर्थात् देश अस्तित्व में । बताया जाता है जिस पर बाणासुर का आधिपत्य रहा है। एक अनुश्रुति में माना जाता है कि किन्नौर और बुशहर जनपदों से बहने वाली नदी को कैलाश मानसरोवर से बाणासुर ही लेकर आया था और उसने शोणितपुर अर्थात वर्तमान सराहन को उस समय अपनी राजधानी बनाया। प्रचलित लोकविश्वास है। कि बाणासुर श्रीकष्ण का समकालीन था। इसलिए शोणितपुर और द्वारिकापुरी के महाराजा समकालीन थे। बाणासुर के जो अट्ठारह पुत्र-पुत्रियां हुए, उनमें एक अति सुन्दर कन्या उषा जिसे किन्नौर क्षेत्र में उखा कहा जाता है, थी जिसने अपनी दिव्यदृष्टि से कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध को देख लिया था। यह भी माना जाता है कि वह उस काल में शोणितपुर आया था। इस संदर्भ में कई मत और कथाएं हैं। उषा को अनिरूद्ध बहुत पसन्द था, इसलिए उसने उसे अपने महल में कैद कर विवाह करने की इच्छा जताई। बाणासुर को मालूम हुआ तो उसने । अनिरूद्ध को कैद कर दिया। श्रीकृष्ण को जब इस बात का पता चला तो वे अपनी सेनाएं लेकर शोणितपुर आए और बाणासुर से भयंकर युद्ध करके अनिरूद्ध को न केवल मुक्त करवाया बल्कि बाणासुर के राज्य का अंत भी हुआ। राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र प्रद्युम्न को सौंप दिया। इसलिए बुशहर- किन्नौर की जितनी भी वंशावलियां उपलब्ध हैं, उनमें पहला राजा प्रद्युम्न सिंह ही अंकित है। कामरूप से प्राप्त वंशावली में १२२वें राजा पद्मसिंह है जिनका कार्यकाल १९१४-१९४७ तक रहा है और उसके बाद उनके पुत्र राजा वीरभद्र सिंह को औपचारिक व अधिकारिक रूप से बुशहर- किन्नौर का राजा माना जाता है।


    इस राज्य व रियासत के कई ऐसे राजा हुए जो वीर, पराक्रमी होने के साथ महान पुरुषों की श्रेणी में भी आते हैं। केहरी सिंह का शासनकाल १६३९-१६९६ ई. रहा है। उनके समय तिब्बत से एक ऐसी सृधि हुई जो पूर्व काल में कभी टूटी ही नहीं। आजादी के उपरान्त हालांकि उसमें कई बाधाएं उत्पन्न हुई है लेकिन उसका प्रमाण रामपुर का अन्तर्राष्ट्रीय लवी मेला आज भी प्रत्येक वर्ष नवम्बर माह में मनाया जाता है। इस सन्धि से बुशहर-किन्नौर में ही नहीं पूरे भारत में तिब्बत से व्यापार का आदान प्रदान शुरू हुआ। इस सन्धि में देवताओं को साक्षी माना गया है। जब तक त्रिकालज्ञ देवताओं का वास स्थान और जम्बू द्वीप के मध्य का स्थित किन्नर कैलाश का हिम नहीं पिघलता, मानसरोवर झील का पानी नहीं सूख जाता, कौवा जब तक सफेद नहीं हो जाता तब तक तिब्बत और बुशहर-किन्नौर की मित्रता कायम रहेगी।' इस सन्धि के मुताबिक तिब्बत और भारत के मध्य व्यापार शुरू हुआ जिसका केन्द्र पहले कल्पा और बाद में रामपुर बना। रामपुर का मैदान इसके लिए अति उपयुक्त माना गया जहां सारे व्यापारी एकत्रित हुआ करते थे। आज भी वही परम्पराएं हैं लेकिन बहुत से राजनीतिक और सामाजिक कारणों से इस मैत्री सन्धि के अनुसार सीमा विवाद के कारण तिब्बत और भारत में किन्नौर के रास्ते व्यापार बंद रहा, आज भी तकरीबन बंद ही है। इस राज्य की पहले राजधानी सांगला में स्थित कामरू में हुआ करती थी।


      प्रमाणिक रूप में कामरू का विशाल किला आज भी अपनी ऐतिहासिकता लिए किन्नौर के शिखरों को चुनौती देता प्रतीत होता है। अब उसमें राजा- महाराजा नहीं, देवी कामाख्या रहती हैं। बुशहर के राजाओं का यह राजतिलक केन्द्र भी रहा है। बाद में राजधानी सराहन बदली गई और उसके बाद राजा राम सिंह (१७६७-१७९९ ई.) ने राज्य की राजधानी को सराहन से रामपुर बदल दिया। रियासती काल के अंतिम राजा पद्म सिंह का शासन भी महत्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने १९१४-१९१८ ई. में हुए प्रथम विश्व युद्ध में बुशहर रियासत से अंग्रेजों की यथायोग्य सहायता की जिसका पारितोषिक अंग्रेजों ने राजा पद्म सिंह को नौ तोपों की सलामी देकर प्रदान किया। आजादी के बाद बुशहरकिन्नौर जैसा प्राचीन 'किन्नर देश' पूर्ण जिले के रूप में एक मई, १९६० को हिमाचल का अभिन्न अंग बन गया। इसके दो जिले बन गए- किन्नौर और शिमला। यह जिला पूर्व में तिब्बत, दक्षिण में उत्तर प्रदेश का उत्तरकाशी क्षेत्र, और श्तिथा रोहडू तहसील, दक्षिण-पश्चिम में शिमला, पश्चिम में कुल्लू तथा लाहौल-स्पिति तक फैला हुआ है। इसके अधिकतर गांव सतलुज, बास्पा और स्पिति नदियों के आर-पार बसे हैं। हिन्दुस्तान-तिब्बत मार्ग अपना अधिकतर रास्ता इसी जिले में से होकर तय करता है। कल्पा किन्नौर का जिला मुख्यालय है। इसके दुर्गम, विकट और बर्फ के ऊंचे पहाड़ हैं जिनके मध्य भारत की सुरक्षा सेनाएं अनेक कठिनाइयों से जूझती हुई हिमालय की तरफ उत्तरी सीमाओं की रक्षा कर रही हैं। इस जिले की यात्रा के लिए पहले न केवल भारतीय व हिमाचल के लोगों को ‘इन्नर लाईन' परमिट की आवश्कता थी बल्कि किन्नौर के लोगों के लिए भी आने- जाने के लिए अनिवार्य था। लेकिन बहुत साल पहले इस शर्त को भारतीय पर्यटकों और आम लोगों के लिए हटा दिया गया था। अब केवल विदेशी पर्यटकों को ही इन्नर लाईन परमिट की आवश्कता होती है जिन्हें जिला मजिस्ट्रेट शिमला, रिकांगपिओ, कुल्लू और केलांग के अतिरिक्त सब डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट शिमला, रामपुर, कल्पा, निचार, केलांग और उदयपुर से भी प्राप्त किया जा सकता है। जिला प्रशासन के कार्यालय पूह और काजा भी इन्नर लाइन परमिट आसानी से जारी कर देते हैं।


             


     स्पिति के लिए परमिट की आवश्कता को समाप्त कर दिया गया है। किन्नौर की सुन्दरता का वर्णन करना शब्दों में सम्भव नहीं है। इस जिले की संस्कृति अद्वितीय है। हर घर मन्दिर जैसा लगता है। यहां के प्रत्येक मकान की सजावट और उसमें लगे पत्थरों और लकड़ी पर की गई नक्काशी मन को मोह लेती है। यह कालान्तर से वर्तमान तक जिन्दा है। आज भी यदि कोई घर किन्नौर के किसी गांव में बनता है तो अपनी परम्पराओं की सीमाओं में रहकर ही बनाया जाता है। यहां की कुछ परम्पराएं प्राचीन हैं जो अन्य क्षेत्रों से मेल नहीं खाती। यह एक समझने और खोजने की बात हो सकती है लेकिन उपहास उड़ाने की नहीं। लोग देवताओं के लिए समर्पित हैं। कोई भी बात अपने देवता से पूछे बिना सम्भव नहीं हो पाती। संयुक्त रूप से यहां भी हिन्दू और बौद्ध धर्म का प्रभाव है। हिन्दू और बौद्ध मन्दिर साथ- साथ हैं। बाहर से इन मन्दिरों की बनावट से यह अनुमान लगाना कठिन है कि कौन सा मन्दिर हिन्दू देवता का है और कौन सा बौद्ध मठ। केवल भीतर प्रवेश करके ही यह अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए यहां हिन्दू और बौद्ध धर्मों का विकास साथ-साथ हुआ है। यहां के मेलों और त्यौहारों में एक अलग आकर्षण रहता है। अलग परम्परा और अलग पहचान। नृत्य ही लोगों का जीवन है। गर्मियों का मौसम जहां कड़े परिश्रम के मध्य गुजरता है, वहां सर्दियों के दिन नाचते-गाते खुशी-खुशी। लोग अति मृदुभाषी हैं जो किसी भी पथिक का मन मोह लेते हैं। इस जिले के गांवों में कई प्राचीन मन्दिर हैं। विशाल रथ जिनके प्रतीक हैं। देवी-देवताओं के इन रथों में सोने और चांदी की कई मोहरें यानि प्रतिमाएं प्रतिष्ठित रहती हैं। देवताओं को कालान्तर से पशु बलि देने की परम्परा रही है। प्रत्येक कारदार और लोगों को एक विशेष देव नियम की परिधि में बंधे रहना होता है।


    चिलगोजे के पेड़किन्नौर की अधिकतर भूमि को सजाए हुए हैं। यह प्रकृति की ओर से उनके लिए नकदी फसल भी है। इसके साथ किन्नौर के मीठे सेबों की लोकप्रियता तो विदेशों तक है। इसके अतिरिक्त ओगला, फफरा, बथ्थू और गेहूं भी यहां की मुख्य फसलें हैं। सेब, चूली, खुमानी, बग्गूगोशे यहां के फल हैं। सात महीनों की अवधि तो बर्फ पिघलने के इन्तजार में व्यतीत हो जाया करती है और बाकी बचे महीनों में ही किसान लोग काम-काज में व्यस्त होते हैं। अंगूर की शराब यहां का विशेष आकर्षण माना जाता है। वास्तव में जब यह अंगूरी स्त्री और पुरुषों के शरीर में मस्तीउन्माद पैदा करती है तो स्वतः ही उनके पांव थिरकने लग जाते हैं जिसमें अपनी तरह का एक आनन्द है। यह नशा एक परिधि में बंधा है जो उत्पात नहीं मचाता बल्कि एक तरह से यहां की संस्कृति को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करता है। अधिकतर मन्दिरों में इसी अंगूरी का प्रसाद आगन्तुकों को बांटा जाता है।


     किन्नौर का क्षेत्रफल ६,४०१ वर्ग किलोमीटर है जिसकी जनसंख्या २०११ की जनगणना के मुताबिक ८४१२१ है जिसमें ४६२४९ पुरुष और ३७८७२ स्त्रियां हैं। इस जिले से समदू तक हिन्दुस्तान तिब्बत मार्ग गुजरता है जिसके निर्माण का श्रेय एक फकीर हिमाचल निवासी उस भलखू जमादार को जाता है जिसे अंग्रेजों ने निरक्षर होते हुए भी ओबरशीयर की उपाधि से नवाजा था। वास्तव में इस मार्ग पर जो भी बड़े । पुल लगे या पहाड़ों का कटान हुआ उसमें भलखू की विद्वता और दिव्य दृष्टि थी। भलखू ने ही कालका-शिमला रेलवे लाइन का सर्वेक्षण किया था। इस मार्ग पर जिसे राष्ट्रीय उच्च मार्ग-२२ भी कहा जाता है गुजरते हुए रामपुर से आगे शिमला जिले की अन्तिम सीमा ज्यूरी नामक स्थान पर समाप्त हो जाती है और उसके बाद चौरा गांव से किन्नौर की सीमा शुरू हो जाती है। ज्यूरी सराहन के बिल्कुल नीचे स्थित है और सीमा तक आपका रास्ता लगभग १९० किलोमीटर का है। सही मायनों में हिमाचल के पहाड़ कितने प्यारे, ऊंचे और भयावह है, यह किन्नौर के रास्ते जाने से मालूम होता है। हिमालय का यह ट्रांस हिमालय परिक्षेत्र है जिसकी सीमाएं पश्चिम में लद्दाख और उत्तर में तिब्बत तक फैली है। किन्नौर का मुख्यालय रिंकागपिओ है जो समुद्रतल से २२९० मीटर की ऊंचाई पर । स्थित है। शिमला से यहां तक के की यात्रा २३० किलोमीटर की है। हिन्दुस्तान तिब्बत मार्ग का अंतिम छोर कौरिक माना जाता है जो शिमला से ४२५ और मनाली से ४०३ किलोमीटर है। जहां भारतीय सेना सीमा की चौकसी में रात दिन तैनात रहती है। समदू से यह स्थान १७ किलोमीटर के करीब है जहां से स्पिति घाटी के लिए रास्ता कट जाता है। किन्नौर में अनेक पर्यटक स्थल हैं जिसमें बास्पा घाटी में बसा सांगला सबसे खूबसूरत है। सतलुज और बास्पा नदियों पर कई पनबिजली परियोजनाएं लगी हुई हैं जिनमें भावा और सांगला मुख्य हैं।


     किन्नर शब्द पर जिस जोश से विवाद उठा था वह अब बिल्कुल शांत है। ऐसा नहीं है कि अब किन्नर शब्द हिजड़ों । के लिए प्रयोग होना बन्द हो गया हो। आज भी कई न्यूज चैनल हिजड़ों पर कार्यक्रम दिखाते रहते हैं। भले ही हिजड़ा वर्ग के लोग अपने आप को किन्नर कहलाने से परहेज करते हों लेकिन मीडिया के लिए यह एक बढ़िया और सुन्दर शब्द मिल गया है। शिमला और कुछ दूसरे शहर के हिजड़ा वर्ग के लोगों ने तो बाकायदा एक प्रेस विज्ञप्ति देकर इसका खंडन भी किया था। मेरी मध्य प्रदेश में इस मुद्दे पर जब विधायक शबनम मौसी से बात हुई थी तो उन्होंने इसका सारा दोष प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया के सिर यह कह कर मढ़ा था कि यदि मीडिया उन्हें किन्नर कह रहा है तो उसमें उनका क्या दोष..? हिजड़ों ने तो कभी भी अपने को किन्नर नहीं कहा।' यही नहीं, अब तो साहित्य में भी इस शब्द का प्रचलन और प्रयोग हिजड़ा समुदाय के लोगों के लिए होना शुरू हो गया है। जबकि पढ़े-लिखे विशेषकर जागरूक लोगों से इस तरह की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे ही लोगों ने, जिन्हें न हिमाचल के इतिहास और संस्कृति का कोई ज्ञान है और न तथ्यों को जानने की समझ, उन्होंने ही प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के लिए किन्नर शब्द को हिजड़ों के लिए ईजाद किया है। २००० में जब कुछ हिजडे राजनीति में आए तो इन लोगों के लिए उन्हें हिजड़ा कहते और लिखते हुए शर्म महसूस हुई होगी और फिर किन्नर शब्द इस अर्थ में कि वे नृत्य में पारंगत होते हैं, हिजड़ों को दे दिया गया। आश्चर्य होता है कि जिन लोगों को ‘हिजड़ों और 'किन्नर-किन्नरियों' के नृत्य में कोई फर्क नजर नहीं आया या और थर्ड जेंडर भी अन्तर कहां आता है उन्हें फिर आम आदमी नजर आता होगा। फिल्म निर्देशक मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्म ‘ट्रैफिक सिग्नल' के रिलीज होने से पहले जितने भी साक्षात्कार दिए थे उनमें प्रमुखता से हिजड़ा से पहले जितने भी साक्षात्कार विभिन्न टी.वी. चैनलों को दिए थे उनमें प्रमुखता से हिजड़ा समुदाय को किन्नर कह कर पुकारा गया था। क्योंकि टी.वी. चैनलों का दायरा काफी व्यापक होता है, इसलिए देश या विदेश के लोगों में इस शब्द के प्रति संदेह होना स्वाभाविक था। हिमाचल में फिल्म रिलीज होने से पहले ही इस बात को लेकर बवाल मचना स्वाभाविक था। मधुर भंडारकर के साक्षात्कार पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। प्रदेश सरकार ने किन्नौर वासियों और संस्कृति के साथ इस तरह का खिलवाड़ होते देख इस फिल्म के हिमाचल में रिलीज होने पर प्रतिबंध लगा दिया था। हमने जब मधुर भंडारकर से इस मामले में बात की तो उन्होंने इसे बिल्कुल हल्के ढंग से लिया। प्रतिबंध के बाद उन्हें बात की गंभीरता समझनी चाहिए थी लेकिन ऐसा न होकर वह यह कहते रहे कि 'हिजड़ों को किन्नर न कहें तो क्या कहें।' इतना ही नहीं महेश भट्ट और अशोक पंडित सहित कई फिल्म निर्देशकों ने मधुर भंडारकर के पक्ष में आते हुए मुम्बई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की जिसमें बहुत ही मजाकिया और हल्के-फुल्के ढंग से इस बात को लिया गया और बजाए इसके कि जिम्मेदाराना ढंग से इस मामले पर विचार किया जाता, किन्नौर वासियों का ही मजाक उड़ाया। गया। यह मजाक न केवल किन्नौर वासियों का था बल्कि हिमाचल की संस्कृति के साथ हमारे वेदों-पुराणों, रामायण, महाभारत, महापंडित राहुल सांकृत्यायन के साथ उन विद्वान । साहित्यकारों/इतिहासकारों का भी अपमान था जिन्होंने किन्नर पर दर्जनों शोध ग्रन्थ और पुस्तकें लिखी हैं। किन्नर का एक ऐसा सांस्कृतिक मुद्दा है जिस पर न केवल अकेले किन्नौर वासियों की अस्मिता दांव पर है बल्कि उस तमाम साहित्य । और शोध पर भी प्रश्नचिह्न है जो इस सन्दर्भ में उपलब्ध है। कुछ समय पूर्व जे.एन.यू. में किन्नर लोक गीतों पर शोध कर रहे एक छात्र विश्वमित्र नेगी मेरे पास आए। उन्हें कुछ सामग्री भी चाहिए थी। बातों-बातों में उन्होंने मधुर भंडारकर द्वारा हिजड़ों को किए जा रहे किन्नर शब्द के इस्तेमाल का जिक्र कर दिया। कहने लगे कि दिल्ली या जहां भी वे जाते हैं तो उन्हें अपने दोस्तों और अन्य लोगों के बीच अपमानित होना पड़ता है। वे यही समझते हैं कि यह शोध हिजड़ों पर हो रहा है। उनका कहना था कि अब तो जो पुस्तके किन्नर से सम्बन्धित हैं, चाहे वह किन्नर देश हो या किन्नर लोक साहित्य, उन्हें भी लोग शक की निगाह से ही देखते हैं। दूसरा उदाहरण किन्नौर से निकलने वाले एक साप्ताहिक का है जो ‘किन्नर देश' के नाम से छपता था। उसके संपादक ने उसे तभी से बंद कर दिया जब से यह शब्द प्रदूषित हुआ है।


     किन्नौर निवासी-समाजसेवी व राजनीतिक कार्यकर्ता भगतसिंह किन्नर ने तो हिम्मत करके 'किन्नर' उपनाम बड़े साहस से बचाया है। लेकिन उनकी गाथा भी कम दुखद नहीं। वे बताते हैं कि कई वरिष्ठ अधिकारियों से जब मिलना होता है तो वे पहले तो शक की निगाह से देखते हैं। बाद में सलाह भी दे डालते हैं कि उन्हें 'किन्नर' की जगह कुछ ‘नेगी-शेगी। लिखना चाहिए। इतना ही नहीं पिछले दिनों हिमाचल के किन्नौर जिला निवासी देवेन्द्र सिंह गोलदार नेगी जो प्रदेश न्यायपालिका में न्यायविद् के पद पर रह चुके हैं, को एक समाचार पत्र ने 'हिजड़ा जनजाति से पहला व्यक्ति' तक कह दिया था। उन्होंने यहां के मेडिकल कॉलेज में अपनी देह मृत्यु के बाद दान करने सम्बन्धी जब एक प्रेस विज्ञप्ति दी तो उन्हें हिजड़ा जनजाति के पहले व्यक्ति से सम्बोधित तक कर दिया जिस पर वे इतने आहत हुए कि उन्होंने उस समाचार पत्र व रिपोर्टर पर न्यायालय में जाने का मन बना लिया था। परन्तु समाचार पत्र के संपादन मंडल ने बात की गम्भीरता को देखते हुए उनसे सम्मानपूर्वक इस भूल के लिए माफी मांग ली थी। उन्होंने भी किन्नौर के इतिहास और संस्कृति पर 'आदिवासिक संस्कृति के आर्थिक आधार' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है। ऐसे अनेक उदाहरण है जिस कारण आज किन्नौर के लोगों को प्रदेश से बाहर अपमानित होना पड़ रहा है लेकिन उसके बाद भी न तो हमारी सरकार और न ही सम्बधित विभागों ने कोई गम्भीर कदम इसके प्रति उठाए हैं। यह मुद्दा मधुर भंडारकर की फिल्म के साथ शुरू नहीं हुआ बल्कि वर्ष २००० दिसम्बर से प्रारम्भ हुआ था। उस समय इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया था। मैंने जब इस मुद्दे को पहली बार उठाया तो कुछ तथाकथित लेखकों और समाज-शास्त्रियों को यह कोरा पब्लिसिटी स्टंट ही लगा था। लेकिन हिमाचल के मीडिया ने इसे खूब तरजीह दी थी। उस समय यह मामला विधान सभा तक पहुंचा था और उस पर बहस भी हुई। उसके बाद वर्ष २००७ में दोबारा यह मामला विधान सभा के ध्यान में लाया गया और इस बाबत एक निंदा प्रस्ताव भी पारित किया गया कि हिजड़ों को किन्नर कहना किन्नौर की जनजाति का अनादर है। इसका प्रयोग बंद किया जाए। परन्तु उसके बाद यह मामला ठंडे बस्ते में दफन हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने 'किन्नर देश' हिजड़ों पर नहीं लिखी थी। वह किन्नौर जिला है जिसे उन्होंने 'किन्नर देश' कहा और अनेक प्रमाण इसके लिए दिए। किन्नर कैलाश को भगवान शिव की स्थली माना जाता है जो किन्नौरवासियों के साथ भारत के लोगों का एक बड़ा धामिर्क स्थल भी है। लेकिन इतिहास में (किन्नौर प्रशासन के पास भी) ऐसे कोई प्रमाण नहीं होंगे कि किन्नर कैलाश की परिक्रमा हमारे हिजड़े भाई करते होंगे। या उनका यह बड़ा धार्मिक केन्द्र रहा होगा। उन्हें तमाम वेद-पुराणों और साहित्यिक कृतियों का भी ज्ञान होगा जिसमें कहीं भी 'किन्नर' के अर्थ हिजड़े के लिए प्रयुक्त हुए हों। यहां किन्नर के सन्दर्भ में कुछ प्रामाणिक तथ्य दिए जा रहे हैं: पौराणिक ग्रन्थों और साहित्य में किन्नरः पौराणिक ग्रन्थों, वेदों-पुराणों और साहित्य तक में किन्नर हिमालय क्षेत्र में बसने वाली अति प्रतिष्ठित व महत्वपूर्ण आदिम जाति है। जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। संविधान में भी इन्हें किन्नौरा और किन्नर से संबोधित किया गया है। किन्नौर वासियों को जब जनजाति का प्रमाण पत्र दिया जाता है तो उसमें स्पष्ट लिखा होता हैनागरीप्रचारिणी सभा द्वारा १२ खण्डों में प्रकाशित हिन्दी विश्व कोष (१९६३) के तीसरे खण्ड, पृष्ठ-८ पर किन्नर शब्द की। व्याख्या इस प्रकार है


     १. किन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नौर प्रदेश के पहाड़ी, जिनकी भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की है।


      २. किन्नर हिमाचल के क्षेत्र में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है, जिसके प्रधान केन्द्र हिमवत् और हेमकूट थे। पुराणों और महाभारत की कथाओं एवं आख्यानों में तो उनकी चर्चाएं प्राप्त होती ही हैं। कादंबरी जैसे कुछ साहित्यिक ग्रन्थों में भी उनके स्वरूप, निवास क्षेत्र और क्रियाकलापों के वर्णन मिलते हैं। किन्नरों की उत्पत्ति में दो प्रवाद हैं। एक तो चह कि वे ब्रह्मा की छाया अथवा उनके पैर के अंगूठे सेउत्पन्न हुए हैं और दूसरा यह कि अरिष्ठा और कश्यप उनके आदिजनक थे। हिमाचल का पवित्र शिखर कैलाश किन्नरोंका प्रधान निवास स्थान था, जहां वे शंकर की सेवा कियाकरते थे। उन्हें देवताओं का गायक और भक्त माना जाता था और वे यक्षों और गंधर्वो की तरह नृत्य और गायन में प्रवीण होते थे। उनके सैंकड़ों गण थे और चित्ररथ उनका प्रधान अधिपति था।


        ३. मानव और पशु अथवा पक्षी संयुक्त भारतीय कला का एक अभिप्राय इसकी कल्पना अति प्राचीन है। शतपथ ब्राह्मण (७.५.२.३२) में अश्वमुखी मानव शरीर वाले किन्नर । का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में किन्नर की कल्पना मानवमुखी । पक्षी के रूप में की गई है। मानसार में किन्नर के गरूड़मुखी, मानव-शरीरी और पशुपदी रूप का वर्णन है।


        ४. संस्कृत ग्रन्थों में किन्नरी वीणा का उल्लेख हुआ है।


        ५. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने किन्नौर, जिसे वे अनेक प्रमाणों के साथ प्राचीन 'किन्नर देश' मानते हैं, इस क्षेत्र की अनेक यात्राएं की हैं और कई पुस्तके लिखी हैं। किन्नर । देश और किन्नर जाति का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व समझने के लिए उनकी बहुचर्चित पुस्तके 'किन्नर देश' और हिमाचल' है। उनके अनुसार यह किन्नर देश है। किन्नर के लिए किंपुरूष शब्द भी संस्कृत में प्रयुक्त होता है, अतः इसी का नाम किंपुरूष या किंपुरूर्षा भी है। किन्नर या किंपुरूष देवताओं की एक योनि मानी जाती थी। किन्नर देशियों को आजकल किन्नौर में किन्नौरा कहते है। पहले किन्नौर या किन्नर क्षेत्र बहुत विस्तृत था। कश्मीर से पूर्व नेपाल तक प्रायः सारा ही पश्चिमी हिमालय तो निश्चित ही किन्नर जाति का निवास था। चन्द्रभागा (चिनाव) नदी के तट पर आज भी किन्नौरी भाषा बोली जाती है।


       ६. सुत्तपटिक के ‘विमानवत्थु (ईसापूर्व द्वितीय तृतीय सदी) में लिखा है-द्रभागानदी तीरे अहोसि किन्नर तदाजिससे स्पष्ट है कि पर्वतीय भाग के चनाव के तट पर उस समय भी किन्नर रहा करते थे।'


        ७. डा. बंशी राम शर्मा ने जो हिमाचल कला, भाषा और संस्कृत अकादमी के सचिव रहे हैं, किन्नौर और किन्नर जनजाति पर पहला शोध किया और उनका यह शोधग्रन्थ ‘किन्नर लोक साहित्य' शीर्षक से प्रकाशित है जिसे किन्नौर पर प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस पुस्तक में अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि वर्तमान किन्नौर में रहने वाले निवासी किन्नर जाति से सम्बन्धित हैं।


         ८. महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ किरातार्जुनीय महाकाव्य के हिमालय वर्णन खण्ड (पांचवा सर्ग, श्लोक १७) में किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराओं आदि देव-योनियों के किन्नर देश में निवास होने का वर्णन किया है।


         ९. वायुपुराण में महानील पर्वत पर किन्नरों का निवास बताया गया है।


          १०. डी.सी.सरकार के अनुसार किंपुरूष-किन्नर भी आदिम जातियां थीं जो हेमकूट में निवास करती थी।


           ११. हरिवंश पुराण में किन्नारियों को फूलों तथा पत्तों से श्रृंगार करते हुए बताया गया है जो गायन और नृत्यकला में अति दक्ष होती है।


           १२. भीम ने शांतिपर्व में वर्णन किया है कि किन्नर बहुत सदाचारी होते हैं उन्हें अन्त:पुर में भृत्य के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। कार्तिकेय नगर हमेशा किन्नरों के मधुरगान से गुंजायमान रहता है।


          १३. महाभारत के दिग्विजय पर्व में अर्जुन का किन्नरों के देश में जाने का वर्णन आता है। ‘पराक्रमी वीर अर्जुन धवलगिरि को लांघ कर द्रुमपुत्र के द्वारा सुरक्षित किंपुरूष देश में गए जहां किन्नरों का वास था। उन्होंने क्षत्रिय का भारी संग्राम के द्वारा विनाश करके उस देश को जीता था।


         १४. चन्द्र चक्रवती ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘लिटरेरी हिस्टरी आफ एन्शियंट इंडिया' में लिखा है कि किन्नर कुल्लू घाटी, लाहुल और रामपुर में सतलुज के पश्चिमी किनारे पर तिब्बत की सीमा के साथ रहते हैं।


         १५. अजन्ता के भित्ति चित्रों में गुह्यकों, किरातों तथा किन्नरों के चित्र भी हैं। इन चित्रों का ऐतिहासिक महत्व हैं जो ईसा की तृतीय से अष्टम शताब्दी के मध्य की धार्मिक तथा सामाजिक झांकी प्रस्तुत करते हैं।


        १६. किन्नरों के वर्णन बौद्ध ब्रन्थों में भी आते हैं। चन्द किन्नर जातक में बोधिसत्व के हिमालय प्रदेश में किन्नर योनि में जन्म लेने की बात कही गई है। इस सन्दर्भ में इस ग्रन्थ में किन्नर और किन्नारियों की कई कथाएं वर्णित है।


         १७. महाकवि कालीदास ने अपने अमर ग्रन्थ कुमार सम्भव (प्रथम सर्ग, श्लोक ११, १४) में किन्नरों का मनोहारी वर्णन किया है जिसका हिन्दी अनुवाद है- जहां अपने । नितम्बों और स्तनों के दुर्वह भार से पीड़ित किन्नरियां अपनी स्वाभाविक मन्दगति को नहीं त्यागतीं यद्यपि मार्ग, जिस पर शिलाकार हिम जम गया है, उनकी अंगुली व एड़ियों को कष्ट दे रहा है। पुराणों में किन्नरों को दैवी गायक कहा गया है। वे कश्यप की सन्तान हैं और हिमालय में निवास करते हैं।


      १८. वायुपुराण के अनुसार किन्नर अश्वमुखों के पुत्र थे। उनके अनेक गण थे और वे गायन और नृत्य में पारंगत थे। हिमालय में स्थित अनेक स्थानों पर किन्नरों के लगभग सौ शहर थे। वहां की प्रजा बड़ी प्रसन्न तथा समृद्धशाली थी। इन राज्यों के अधिपति राजा द्रुम, सुग्रीव, सैन्य, भगदत आदि थे। जो बहुत शक्तिशाली माने जाते थे। किन्नरों का हिमालय के बहुत बड़े क्षेत्रों पर अधिकार था।


      १९. किन्नौर के गेजेटियर में भी किन्नर का विस्तार से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक उल्लेख किया गया है।


      २०. रांघेय राघव द्वारा लिखित पुस्तक 'प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास' पृष्ठ-७६ पर जिक्र है ‘गन्धर्वो की एक किस्म में किन्नर हैं, शिव की प्रजा है। द्रुम उनका अधिपति है। वे जोड़ों में रहते हैं-स्त्री पुरूष।'


       २१. प्रो. डी.डी. शर्मा कृत पुस्तक-हिमालयी संस्कृति के मूलाधार, पृष्ठ-४० पर उद्धृत है कि ‘शरीर रचनात्मक गुण धर्मों की दृष्टि से ये लोग (किन्नर) हिमालय की मंगोल रक्तिय किरात जातीय लोगों के समान लोम तथा श्मश्रु (दाढी मूंछ) हीन तो होते ही थे साथ ही नारियों के समान ही आकर्षित दीर्घ केशों की बेणी भी किया करते थे। इनके पुरुषों के इस रूप को देखकर मध्य देशीय आर्य वर्गीय लोगों के लिए आपाततः यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि दृष्यमान व्यक्ति नर है या कि नारी? इसके अतिरिक्त नेक विद्वानों और साहित्यकारों ने अपने शोधग्रन्थों, यात्रा-पुस्तकों, आलेखों और कविताओं में किन्नर देश और किन्नौर में रहने वाली किन्नर जनजाति का उल्लेख किया है। इनमें न केवल हिमाचल के विद्वान-लेखक शामिल है बल्कि देश-विदेश के लेखक भी हैं। पिछले दिनों किन्नौर निवासी शोधकर्ता व लेखक टेसी छेरिंग नेगी की दो पुस्तके उल्लेखनीय है। पहली पुस्तक ''किन्नरी सभ्यता और साहित्य'' दिल्ली साहित्य अकादमी ने प्रकाशित की है। हाल ही में उनकी दूसरी पुस्तक भी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है “किन्नर देश का इतिहास''। इसका विमोचन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने ठीक उसी दौरान किया जब मधुर भंडारकर की फिल्म पर प्रतिबंध लगा था। श्री शरभ नेगी की पुस्तक ‘‘हिमालय पुत्र किन्नरों की लोक गाथाएं'' किन्नर लोक गाथाओं पर पहली प्रमाणिक पुस्तक है। मेरी दो पुस्तकों ‘‘यात्रा-किन्नौर, स्पिति और लाहुल'' तथा ‘‘हिमाचल के मन्दिर और लोक कथाओं'' में किन्नौर और किन्नर इतिहास तथा संस्कृति का विस्तार से उल्लेख किया है। हिमाचल के प्रसिद्ध लेखक मियां गोवर्धन सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘हिमाचल प्रदेश का इतिहास'' भी इस सन्दर्भ में एक प्रमाणिक ग्रन्थ है। वर्तमान में न केवल हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय बल्कि प्रदेश के बाहर स्थित जे.एन.यू. स्थित कई दूसरे विश्वविद्यालयों में कई शोध छात्र किन्नर लोक गीतों, इतिहास और किन्नर लोक साहित्य पर शोध कर रहे हैं। किन्नर-शब्द के इस अर्थ में प्रचलन और प्रयोग से आज किन्नौर के लोग आहत महसूस कर रहे हैं। यहां यह लिखना अनिवार्य है कि थर्ड जेंडर समुदाय हमारे समाज के अभिन्न और सम्मानित अंग है और हमारे लिए भी, वे किसी भी तरह इस विरोध को अन्यथा नहीं लेंगे, यह हमारा और किन्नौर वासियों का विश्वास है क्योंकि उन्हें अब सबसे बड़े न्यायालय से भी थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी है, इसलिए हम उनसे भी सहयोग की अपील करते हैं कि अपने लिए किन्नर-शब्द का प्रयोग न करें। उसी तरह हमारे जो मीडिया के लोग हैं, साहित्यकार और समाजसेवी हैं वे भी इसमें सहयोग करेंगे तो 'किन्नर' शब्द जो पहले ही एक प्राचीन जनजाति के लिए हिमाचल के जनजातीय जिला किन्नौर में प्रयोग होता है और संविधान में भी मान्यता प्राप्त है, इस तरह एक दूसरे अर्थ में प्रयुक्त होने से बच जाएगा। (किन्नर -शीर्षक से एस आर हरनोट की एक बहुचर्चित कहानी बया में प्रकाशित हो चुकी है)।


                                                                    सम्पर्क : ओम भवन, मोरले बैंक इस्टेट, निगम बिहार, शिमला-171002 फोन: 0177-2625092,                                                                                                                                                            मो. नं.: 9816566611