लेख - नामवर सिंह : आलोचना सिद्धांत और अंतर्विरोध - उमाशंकर सिंह परमार

किसान आन्दोलन से जुड़ाव, जनवादी लेखक संघ उत्तर प्रदेश का राज्य उप सचिव विधा : आलोचना, कभी कभार कविता पुस्तक : प्रतिपक्ष का पक्ष, सुधीर सक्सेना-प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य, समय के बीजशब्द, पाठक का रोजनामचा, कविता पथ, सहमति के पक्ष में (प्रकाशकाधीन) हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं में आलेखों का प्रकाशन।


                                                          --------------------------


हिन्दी साहित्य में महान् होना तर्क बुद्धि और रचनात्मकता का सवाल नहीं हैबल्कि पद और पावर के बूते प्रशंसकों की दाद लूटने का सवाल है। महान् होने का कारण साहित्येतर भी हो सकता है और रचनात्मक भी मगर आजकल रचनात्मकता से महान् होना बेहद कठिन है। ऐसा नहीं है कि सभी बड़े साहित्यकार साहित्येतर कारणों से महान् बने ऐसा मै दावा नहीं कर सकता हूँ। निराला, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन जैसे कवि किसी बड़े पद पर नहीं थे, न ही ऐसी कोई शक्ति थी कि चेलों को नियुक्त करके अपने लिए नि:शुल्क चारणों की फौज खडी लें। ये लोग जमीनी कवि और आलोचक थे जीवन भर तमाम कष्टों को सहते हुए भी अपनी रचनात्मकता से कभी समझौता नहीं किया। विचारधारा के प्रति समर्पित रहते हुए आजीवन रचनात्मक संघर्षों से मुठभेड़ की और अन्ततः विचारधारा के बूते अपने रचनात्मक मुकाम को प्राप्त किया। इनका रचनात्मक संघर्ष दो प्रकार की शक्तियों से रहा है। एक तरफ वह शक्तियाँ थी जो वैचारिक रूप से स्पष्ट थीं और सीधे रचनात्मक चुनौती प्रस्तुत कर रही थीं। जाहिर है इन शक्तियों को हम रूपवादी और प्रयोगवादी शक्तियाँ कहेंगे जो भारत में पूँजीवादी और उच्च-मध्यमवर्गीय तबके की प्रियतम विचारधारा थीजनवाद व लोकधर्मिता इनके सबसे बड़े शत्रु रहेप्रतिगामी शक्तियों के साथ मिलकर इस धारा के रचनाकारों ने पूँजीवाद को साहित्य में सीधे हस्तक्षेप करने का सुअवसर दिया और दूसरा संघर्ष ओढ़ी हुई विचारधारा के लेखकों और आलोचकों से था, जो साहित्य की अन्दरूनी राजनीति के लिए काफी कुख्यात रहे और घोषित रूप से अपने आप को प्रगतिशील कहते रहे मगर स्थापनाओं व सैद्धांतिक विश्लेषण में प्रतिक्रियावाद के पोषक रहेउनके लेखन से प्रगतिशील लेखन का कोई भी हित नहीं हुआ इसके उलट प्रतिगामी राजनीतिक शक्तियों को बढ़ावा मिला। चूंकि साहित्यिक राजनीति किसी भी स्तर की हो वह किसी न किसी बिन्दु पर गैर प्रगतिशील हो जाती है। राजनीति में विचारधारा और पक्षधरता जैसी बातों का कोई महत्व नहीं होता है, इसके लिए विरोधी विचारधाराओं से नाभिनालबद्ध होकर पूँजीवादी हथकंडों व अकूत सम्पत्ति का खुलकर प्रयोग होता है। चूंकि प्रथम कोटि का संघर्ष स्पष्ट होता है, वह सनातन है लोकधर्मी परम्परा ने सर्वदा से ऐसी शक्तियों का लोहा लिया है। अपनी अवधारणाओं व सिद्धांतों में संशोधन करते हुए युगबोध, इतिहास चेतना, औरविचारधारा की रचनात्मक अनिवार्यता का प्रतिपादन किया है। भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद में ऐसी शक्तियाँ चिह्नित की जा चुकी हैं। भाषा का विकास व मानवीय चेतना का विकास इन्हीं परस्पर विरोधी शक्तियों के आपसी विक्षोभ का अवदान है। इस टकराव को हमें ऐतिहासिक पद्धति के रूप में स्वीकार करना चाहिए और अधिकांश लोग स्वीकार करते भी हैं। विकास की ऐतिहासिक भूमिका और भंगिमा को यदि हम स्वीकृति प्रदत्त करेंगे तो निश्चित है पक्ष और विपक्ष दोनों की उपस्थिति को स्वीकृति देंगे। इस अनिवार्य और जरूरी विपक्ष से भी अधिक खतरनाक वह पक्ष होता है जो विचारधारा की शक्ल में पक्ष को नेस्तनाबूत करने का उपक्रम करता है। यह विपक्ष-पक्ष की शक्ल में विपक्ष के एजेन्डे पर काम करता है। तमाम तर्को और पूँजीवादी साहित्एतर हथकंडों से अपने पक्ष का नुकसान करता है। प्रगतिशील कविता और आलोचना में अब ऐसे प्रतिपक्ष को या छद्म पक्ष को चिह्नित किया जाने लगा है। ऐसे लेखकों और आलोचकों की शिनाख्त हो चुकी है जिन्होंने राजनैतिक रूप से प्रगतिशील आन्दोलन को ध्वस्त करने में अपनी पूरी रचनात्मक ताकत झोंक दी हैप्रगतिशील आन्दोलन के आरम्भ से ही हिन्दी के पूँजीपरस्त खेमें में भीषण बेचैनी का माहौल देखा गया। कविता जनगीत और लोकसंघर्षों की भंगिमा को मुख्यधारा न बना दे, इसके लिए तमाम किस्म की उठापटक आरम्भ हो गईं। अज्ञेय ने बड़ी शिद्दत के साथ घोषित किया कि “हम नदी के द्वीप हैं'' अर्थात अन्य दूसरे द्वीपों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। जैनेन्द्र कुमार ने यह कहकर कि ''समाज क्या है हम उसे नहीं जानते। उससे हमारी कोई जान पहचान नहीं है'' (लहक, अप्रैल २०१५) अपनी वास्तविकता जगजाहिर कर दी। इसी राह के राही निर्मल वर्मा थे उनके उपन्यासों लाल की छत, लंदन की एक रात, वे दिन आदि में भारतीय जनमानस व जन की खोज करना आकाश में कुसुम खोजने के जैसा है। ये सब उच्च मध्यम वर्गीय सरोकारों के लेखक थे। इनका लक्ष्य द्वन्द्वात्मक रूप से अन्तर्ग्रथित समाजिक संघर्षों को नकार कर पूँजीवादी मूल्यों के लिए माकूल जमीन तैयार करना था।


      मगर ये लोग एक भी बड़े नाम की स्थापना नहीं कर सके। मुक्तिबोध के बाद कौन? यह सवाल अभी जस का तस है। अज्ञेय, अशोक बाजपेई, निर्मल वर्मा कभी भी जनपक्षीय नहीं रहे। न उनमें इतना साहस था कि जनपक्षीय धारा की आलोचना कर सकें व कोई नया सैद्धांतिक विमर्श प्रस्तावित कर सके। मगर इस कमी को पूरा किया महान् आलोचक नामवर सिंह ने। अज्ञेय, निर्मल वर्मा की सैद्धांतिक सोच और अशोक बाजपेई की पूँजीवादी राजनीति को वैचारिक रूप से जनपक्षधर सिद्ध करने के लिए नामवर सिंह ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया और वह अपने पद व निजी जान पहचान के कारण इसमें सफल भी रहे और हिन्दी आलोचना के शिखर आलोचकों में शुमार किए जाने लगे। लेकिन उनकी एक भी स्थापना सुसंगत नहीं है, तर्को में एकरूपता नहीं हैउनका ध्येय रहा है कि येन-केन प्रकारेण कलावाद की स्थापना की जाए, सामाजिक सरोकारों की बजाय कलावादी चमत्कार और भाषा खेल को वैधता प्रदत्त की जाए। इसके लिए उन्होंने तमाम पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों को खंगाल डाला। नई समीक्षा जैसी रूपवादी पद्धति को थोड़े मामूली परिवर्तन के साथ हिन्दी कविता के लिए नए प्रतिमान गढ़ डाले। स्थापना के सवाल पर वह जरूर निराला और मुक्तिबोध का नाम बारबार लेते हैं मगर उनकी काव्य परिपाटी की समझ को अपने सिद्धांतों में जरा भी जरजीह नहीं देते हैं। मुक्तिबोध की कविता में ''कलावादी'' आरोप का भ्रम नामवर सिंह ने ही उत्पन्न किया। एक बड़े लोकधर्मी कवि को आईडेन्टिटी की खोज से जोड़कर उनकी कविता को रूपवादी बनाने में नामवर सिंह ने पूरी ताकत झोंक दी। आधुनिक काल में मुक्तिबोध पर तमाम व्याख्याएँ आ गई हैं, लोगों ने उनकी कविता का नया पाठ किया है तो मुक्तिबोध की लोकधर्मिता पहचान कर ली गई है अन्यथा नामवर सिंह उन्हें भी कलावादी कहकर कविता की जनधर्मी परम्परा को ख़त्म करने के मूड में थे। उनकी दूसरी परम्परा की खोज जैसा कि नाम ही है, यह द्विवेदी और शुक्ल के बीच की बहस नहीं है बल्कि द्विवेदी जी के बहाने आचार्य शुक्ल की लोकधर्मी रीति का खंडन है। क्योंकि वाम समीक्षा के जनवादी रूप का प्रस्थान बिन्दु व्यवहारिक रूप से शुक्ल में ही प्राप्त होता है। जो भी लोकविरोधी आलोचक होगा आचार्य शुक्ल का विरोध सबसे पहले करेगा। नामवर सिंह मुक्तिबोध को पंसद करते थे मगर उन्होंने उनकी थ्योरी से कुछ नहीं सीखा। मुक्तिबोध शुक्ल जी के मुरीद थे। कामायनी पर दिए गए उनके बयानों का मुक्तिबोध ने समर्थन किया है या यह भी कहा जा सकता हैकि कामायनी एक पुनर्विचार शुक्ल जी के सिद्धांतों का प्रतिफलन है। उनकी स्थापना का प्रयास है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए मगर नामवर सिंह आचार्य शुक्ल की आलोचना करते नहीं अघाते हैं। इसका मूल कारण है कि नामवर सिंह को मुक्तिबोध से कोई आत्मीयता नहीं थी। मुक्तिबोध उनके लिए महज बहाना थे। कोई लेखक या कवि अपनी रचनाओं से ही पसंद या नापसंद का अधिकारी होता है जब मुक्तिबोध पसंद थे तो उनकी स्थापनाएं पसंद क्यों नहींथी। यह बड़ा सवाल है। स्पष्ट है मुक्तिबोध ऊपरी तौर पर पसंद थे। वे नामवर सिंह के लिए महज मोहरा थे ताकि उन्हें कोई अप्रगतिशील न कह सके इसलिए वे बार-बार मुक्तिबोध का नाम लेते हैं और जबरिया घसीटकर उन्हें भी कलावादी और मध्यमवर्गीय सिद्ध करते हैं। मुक्तिबोध नामवर सिंह के लिए मात्र मोहरा थे। इसका पहला कारण है अन्धेरे में कविता जिसका मूलकथ्य युग की पीड़ाओं के परिप्रेक्ष्य में जनयुद्ध की प्रस्तावना है, उसे उन्होंने अस्मिता की खोज से जोड़ दिया। यह मुक्तिबोध का कुपाठ है। यहां पर नामवर सिंह के मन मस्तिक में मुक्तिबोध व उनकी परिस्थिति नहीं थी वरन् अज्ञेय द्वारा लिखी गई वह पंक्तियाँ थीं जो उन्होंने प्रथम तारसप्तक की भूमिका के रूप में लिखा था जिसमें रचनाकार की तुलना उन्होंने गोताखोर से की थी और कवि को राहों का अन्वेषी कहा था। खोज, निरन्तर खोज का फार्मूला प्रयोगवादी शिगूफा था जो नामवर सिंह की विचारधारा में जड़ होकर बैठ गया था। इसी शिगूफे को वह मुक्तिबोध पर थोपने में सफल हो गए, मुक्तिबोध को अज्ञेय की निरर्थक खोज का प्रतीक बना दिया। इसके बाद तो मुक्तिबोध को पढ़ना और उनपर नई स्थापना करना सही पाठ करना कठिन हो गया। नामवर सिंह का प्रभाव इतना रहा कि उनकी सभी कविताओं को अन्तहीन खोज कहने की परम्परा जैसी चल



                                                           चित्र : विजय अग्रवाल


पड़ीदूसरा कारण हैकविता के नए प्रतिमान में तनाव की चर्चा करते समय नामवर सिंह अज्ञेय और मुक्तिबोध को समतुल्य बता देते हैं। वे लिखते हैं ''कविता में तनाव के महत्व को स्वीकार अज्ञेय ने भी किया है। उदाहरण के रूप में मानसिक तनाव से धनुष की प्रत्यंचा सी तनी हुई'' (कविता के नए प्रतिमान पेज १८१) वास्तव में अज्ञेय मानसिक तनाव के कवि थे, सामाजिक पीड़ाओं से उद्भूत तनावें से उनका या उनके कवि का कोई नाता नहीं था लेकिन तनाव को लेकर मुक्तिबोध और अज्ञेय को नामवर सिंह एकमेक कर देते हैं और उदाहरण के लिए मुक्तिबोध का यह कथन प्रस्तुत करते हैं “आज की कविता में उक्त सामंजस्य से अधिक द्वन्द्व ही है इसलिए उसके भीतर तनाव या घिराव का वातावरण है'' (नई कविता का आत्मसंघर्ष पेज ८) । मुक्तिबोध यहां वाह्य परिवेश के द्वन्द्व से उत्पन्न तनाव की बात कह रहे हैं। उनका तनाव समाजिक पृष्ठभूमि के साथ उपस्थित है जबकि अज्ञेय का तनाव उनकी आत्म अभिव्यक्ति है न कि सामाजिक अभिव्यक्ति है। अज्ञेय के तनाव की असलियत यही है कि वे इसे अपनी निबन्ध पुस्तक ''आत्मनेपद'' में वर्णित करते हैंउनका तनाव व उसकी कोटि बिल्कुल निजी पीड़ा है जिसे मुक्तिबोध ने कामायनी एक पुनर्विचार में मनु की निजी कुंठा कहकर अभिव्यक्त किया है। मनु की कुंठा और अज्ञेय के तनाव को हमें एक मानना होगा क्योंकि अज्ञेय भी मनोविज्ञानवादी थे और मनु भी, जयशंकर प्रसाद भी मनोविज्ञानवादी थे। पता नहीं नामवर सिंह अज्ञेय और मुक्तिबोध को एक सीधी रेखा में क्यों खड़ा कर रहे हैं? जबकि मुक्तिबोध मनोवैज्ञानिकता को सिरे से अस्वीकार करते थे। दोनों के साथ रखने के खतरों से नामवर सिंह वाकिफ थे इसलिए अगले पैरा में वह थोड़ा सा खंडन करते हैं और घुमाफिरा कर मुक्तिबोध के तनाव को दोहरा बता देते हैं और कह देते हैं कि मुक्तिबोध में तनाव की एक कोटि मानसिक भी है। वे लिखते हैं “निस्सन्देह मुक्तिबोध के तनाव और अज्ञेय की तनाव प्रकृति में अन्तर है। अज्ञेय की दृष्टि में मानसिक तनाव प्रमुख है, इसके विपरीत मुक्तिबोध का तनाव दुहरा है'' (कविता के नए प्रतिमान पेज १८१) मतलब कि मुक्तिबोध में भी मानसिक तनाव है। लेकिन मुक्तिबोध का तनाव वाह्य परिस्थितिजन्य है। अज्ञेय जैसा अन्तर्मुखी नहीं है। अज्ञेय समाज के अन्य द्वीपों से कोई मतलब नहीं रखते जबकि मुक्तिबोध समाज के लिए ही कविता का सरोकार तय करते हैं “कोशिश करो / कोशिश करो/ जीने की / जमीन में गड़कर भी'' (चाँद का मुँह टेढ़ा है) मुक्तिबोध का यह बयान पढ़ने के बाद मुझे नहीं लगता कि अज्ञेय और मुक्तिबोध का तनाव एक जैसा है या दोनों की तुलना होनी चाहिए। तनाव से मुझे आपत्ति नहीं है पर इस बहाने अज्ञेय और मुक्तिबोध का आपसी घालमेल उचित नहीं, दोनों एक दूसरे के विपरीत ध्रुव है। लेकिन नामवर सिंह के लिए यही ध्येय है। उन्हें मुक्तिबोध की पक्षधरता और कविता से कोई मतलब नहीं है, उन्हें तो लोकधर्मिता का पक्ष कमजोर करना था। इसके लिए उन्होंने मुक्तिबोध को बहाना बनाया और अज्ञेय से जोड़कर मुक्तिबोध को मध्यमवर्गीय सिद्ध करने की पूरी कोशिश की। कविता के नए प्रतिमान का समर्पण भले ही मुक्तिबोध के नाम पर किया गया है मगर मुक्तिबोध से उन्हें कोई आत्मीयता नहीं थी। प्रतिमान में सबसे ज्यादा विजय देव नारायण साही की प्रशंसा है और अज्ञेय का नाम जपा गया है। मुक्तिबोध उतनी अधिक चर्चा में नहीं आएहैं जितना कि अज्ञेय आए हैं। यदि सैद्धांतिक आत्मीयता होती तो मुक्तिबोध चर्चा में आतेकेदारनाथ सिंह के कथनों का, कविताओं का इस किताब में खूब प्रयोग हुआ है। केदारनाथ सिंह उतने बड़े कवि नहीं हैं न ही वे वामपंथी लोकधर्मी हैं। वे कलावाद के पुरोधा है। इतनी आत्मीयता यदि मुक्तिबोध को देते तो शायद नामवर सिंह वामविरोधी अवधारणाओं से बच जाते। मगर ऐसा नहीं हुआ। उन्हें अज्ञेय की जनविरोधी साहित्य समझ को प्रतिष्ठित करना था इसलिए वे सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों स्तरों पर मुक्तिबोध के साथ आत्मीयता नहीं रख पाए। व्यावहारिक आत्मीयता का आशय है कि आत्मीयता एकपक्षीय नहीं होती हैउसका स्वरूप वैविध्यपूर्ण होता है। यदि वे मुक्तिबोध के हितैषी होते तो मुक्तिबोध के कठिन दुर्दिनों में उनकी सहायता जरूर करते। मगर उन्होंने हजारों चेलों चपाटियों को इधर उधर फिट करा दिया और मुक्तिबोध अपनी आर्थिक तंगी का रोना नामवर सिंह से रोते रहे और उन्होंने कोई ध्यान नहीं दियाइस सन्दर्भ में मुझे वरिष्ठ आलोचक नीलकान्त का एक बयान स्मरण आ रहा हैजो उन्होंने लहक के मई-जुलाई २०१५ वाले अंक में लिखा था। वह कथन है “अपने संघर्ष के दिनों में मुक्तिबोध ने श्री नेमिचन्द्र जैन से और डा. नामवर सिंह से एक छोटी-मोटी नौकरी के लिए पत्र लिखा था। मुक्तिबोध के मरणोपरान्त इलाहाबाद में एक शोक सभा का आयोजन हुआ था। नामवर सिंह की बारी आने पर शोक संवेदना के दो शब्दों से पहले उन्होंने जेब से एक पोस्टकार्ड निकाला जिसे मुक्तिबोध ने एक नौकरी के लिए लिखा था उसे ही पढ़ना शुरू किया। श्रोताओं ने शर्म से सिर झुका लिया'' (लहक) मुझे समझ नहीं आ रहा जो व्यक्ति मुक्तिबोध के जीवनकाल में उसके लिए आत्मीय नहीं रह पाया तो उसके मरने के बाद उसे किताब का समर्पण करके आखिर वे कौन सी आत्मीयता दिखा रहे थे जबकि नामवर सिंह चाहते तो कोई भी छोटी सी नौकरी मुक्तिबोध को दिलवा सकते थे। इसका आशय साफ है, मुक्तिबोध उनके लिए वैसे ही थे जैसे वे प्रगतिशीलता को समझते रहेप्रगतिशीलता का नामवर सिंह ने केवल दोहन किया है, बहाना लिया है परन्तु कर्म प्रगतिविरोधी रहे। वैसे ही मुक्तिबोध भी उनके लिए महज मोहरा थे। उनके रचनाकार्म को अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे मध्यमवर्गीय चेतना के लेखन से जोड़कर वह प्रगतिशीलता को धता बताने में लगे रहे। वे विशुद्ध कलावादी रूपवादी थे और जनविरोधी विचारधाराओं के सफल राजनीतिज्ञ थे।


    हालांकि नामवर सिंह अपने आपको कहीं भी कलावादी और प्रगतिविरोधी नहीं कहते मगर उनके द्वारा सुझाए गए काव्यालोचन व काव्य के प्रतिमान कलावाद की ही स्थापना करते हैं। इस बात को उन्होंने समझा भी है इसलिए कविता के नए प्रतिमान के दूसरे संस्करण में वे लिखते हैं इस पुस्तक से कुछ मित्रों को रूपवादी झुकाव की शिकायत है, खासतौर पर उन्हें जो मुझसे सुसंगत मार्क्सवादी दृष्टि की अपेक्षा रखते है'' (कविता के नए प्रतिमान) नामवर सिंह का यह कथन उनकी अपनी वैचारिक अवस्थिति की आत्मस्वीकृति है। उनके इस कथन से प्रकट है कि नामवर सिंह से माक्र्सवादी समीक्षा की आशा करना बेकार है। वे संकेतों में बता रहे हैं कि मुझसे ऐसी उम्मीद कतई न करें, मैं माक्र्सवादी समीक्षा का लेखक व विवेचक नहीं हूं। फिर लोग अपेक्षा रखते रहेवह इसलिए कि नामवर सिंह घोषित रूप से खुद को वामपंथी कहते रहे, पार्टी में भी रहे, चुनाव भी लड़े। जब आदमी पार्टी से जुड़ा हो तो वाम अनुयाई वाम दृष्टि की अपेक्षा तो करेंगे ही। आप यदि चाहते हैं कि आपसे वाम दृष्टि की अपेक्षा न रखी जाए तो खुद को वामसंगठनों से अलग कर लेते, लोगों की अपेक्षा स्वतः समाप्त हो जाती मगर आपने अपने आपको जोड़े रखा, वाम संगठनों का फायदा उठाया और वाम की बखिया भी उघेडी। जब लोग आपकी असलियत समझ गए तब आपको रूपवादी आरोप भी सच्चाई के साथ बगैर किसी कुतर्क के स्वीकार कर लेना चाहिए। मगर नामवर सिंह वाम होकर वाम सिद्धांतों की तिलांजलि दे रहे थे अस्तु वह घूम फिर कर रूपवाद की वकालत करने लगते हैं। कविता के नए प्रतिमान पर रूपवादी झुकाव का आरोप १२ जनवरी के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में “प्रायदृष्टि'' स्तम्भ के अन्तर्गत गत नेमिचन्द्र जैन ने लगाया था। उन्होंने अपने स्तम्भ में नामवर सिंह पर कविता की स्वायत्त दुनिया'' बनाने का आरोप लगाया था जिसका किसी ''सामाजिक सार्थकता'' से कोई सम्बन्ध नहीं था। नेमिचन्द्र जैन के इस विश्लेषण से नामवर सिंह असहज हो गए और वाम की अवधारणाओं पर ही बदलाव कर बैठे। उन्होंने कविता की ''सापेक्ष स्वतन्त्रता'' जैसे कुतर्क को जन्म दिया। यहां तक कि अपने समर्थन में रामविलास शर्मा जी को भी कविता के प्रति सापेक्ष स्वतन्त्रतावादी बता दिया (कविता के नए प्रतिमान-भूमिका) ये वही रामविलास शर्मा हैं जिन्हें नामवर सिंह पानी पीकर कोसते रहे हैं और अपनी सारी तर्कबुद्धि इनके खंडन में भिड़ा देते रहे हैं। मगर जब विचलन की बात आई तो झट से अपना नाता रामविलास शर्मा से जोड़ लिया, बिल्कुल वैसे ही जैसे मुक्तिबोध से अपना नाता जोड़ लिया था। मगर यह सापेक्ष स्वतन्त्रता की बात ही आत्मविरोधी है। कविता सापेक्ष होती है। वह स्वतन्त्र नहीं होती है, कविता महज लिखने के लिए नहीं है वह जनता के जीवन का प्रतिबिम्ब होती है, जनता की अभिव्यक्ति होती है। उसे स्वतन्त्र कहना कलावाद की दार्शनिक बाध्यता है, यह वाम नजरिया नहीं है। वाम दृष्टि का मुख्य तत्व है युगबोध, इतिहासबोध और विचारधारा। इन तीनों का अनुशासन ही कविता का निर्माण करता है। सबसे मजेदार बात यह रही कि उसे सापेक्ष भी कहते हैं और स्वतंत्र भी। निरपेक्ष कहने में उन्हें खतरा दिखता है जबकि स्वतन्त्रता का बोध सापेक्षता से नहीं होता है, निरपेक्षता से होता है। दो परस्पर विरोधी बातों को कह देने से नामवर सिंह न तो अपने कलावादी होने का खंडन कर पाते हैं न वाम होने की पुष्टि कर पाते हैं। बल्कि यह स्थापना कविता की आम समझ को भी त्रिशंकु की तरह टाँग देती है। जब नामवर सिंह तर्क के महाजाल में फंसते हैं तो इसी तरह उलटा पुलटा बयान देने लगते हैं। जबकि वे पूरै तौर पर कलावादी हैं। इसकी मूक स्वीकृति अपनी पुरस्कृत किताब कविता के नए प्रतिमान की पहली भूमिका में देते हैं। देखिए नामवर सिंह का अभिमत एकदम जड़ रीतिवाद के पोषक प्रतीत होते हैं इस तर्क में वह कविता को व्यकरण की तरह अनशासन से बाँध देते हैं। उन्होंने लिखा है ''शब्दानुशासन की तरह काव्यानुशासन भी वस्तुतः अनुशासन है'' (कविता के नए प्रतिमान पहले संस्करण की भमिका) इससे पहले आपने देखा होगा कि उन्होंने सापेक्ष स्वतन्त्रता की बात की थी, अब यहाँ पर अनुशासन की बात कर रहे हैं। दो अलग अलग भूमिकाओं में दोहरी बात दिख रही हैयह उनकी वाक् कला है। मुझे लगता है इस किताब के जितने भी संस्करण निकले होंगे उतनी बार उन्होंने अपनी बात का खंडन किया होगा और उतनी ही बार नया सिद्धांत गढ़ा होगा। परन्तु व्याकरण के साथ कविता की अतुलनीय तुलना उनके सिद्धांतों और विचारधारा दोनों की धज्जियाँ उड़ा देता है। व्याकरण एक बन्धन है जिसकी अधिकता और जबरदस्ती की अनिवार्यता ने छायावाद जैसे आन्दोलन को जन्म दिया। निराला ने सबसे पहले इस बुर्जुवा पद्धति का प्रतिरोध किया। नामवर सिंह उसे अनुशासन कह कर काव्य और कला के बन्धन को अनिवार्य कह देते हैं और इससे बड़ा मजाक तब करते हैं जब निराला की प्रशंसा करने लगते हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि अपनी बातों और स्थापनाओं को पलीता लगाने वाला अस्थिर चित्त आलोचक कैसे हिन्दी का शिखर पुरुष बन गया? एक भी अभिमत ऐसा नहीं है जिस पर नामवर टिक सके। अगर वे टिकते हैं तो बस इसी बात पर कि कलावाद ही काव्य है। विचारधारा का कोई मूल्य नहीं है। रूपवाद आज की जरूरत है, हमे स्वीकार करना चाहिएऔर अज्ञेय की वे बार-बार स्तुति करते दिख जाते हैं। ये समस्त बातें कविता के नए प्रतिमान में आराम से देखी जा सकती हैं। कलावादी अनुशासन का विरोध हिन्दी के लोकधर्मी कवि और आलोचक सर्वदा से करते रहे हैं। यही कारण है कि हिन्दी के रीतिकाल का सबसे व्यापक विरोध हुआ। आचार्य शुक्ल ने स्वच्छन्द अनुभूति के फक्कड़ कवि घनानन्द को सबसे अच्छा कवि कहकर केशव जैसे भाषा खिलाड़ी को भूत प्रेत की संज्ञा दी थी। केशव और घनानन्द दो विपरीत ध्रुव थे। केशव को केवल चमत्कारवादी ही स्वीकार करते हैं। घनानन्द को जनवादी भी स्वीकार करते हैं क्योंकि वे कलावादी नहीं थे। अज्ञेय भी केशव को पसंद करते थे क्योंकि केशवदास अज्ञेय की बुर्जुवा कलावादी अवधारणा के आदर्श पुरुष थे। वह अज्ञेय के लिए एतिहासिक जरूरत थे वह लिखते हैं केशव व्यंग्य का सफल कवि हैयही नहीं अज्ञेय केशव की तुलना अंग्रेजी के कवि बेन जानसन से भी करते हैं।'' (केशव की कविताई निबन्ध) अज्ञेय की जरूरत और काव्यात्मक सरोकार सभी समझते हैं मगर नामवर सिंह को केशव से क्या मिला? अज्ञेय उनके आदर्श रहे हैं। जब अज्ञेय जैसे बुर्जुवा कवि केशव के ''भूषन बिनु न विराजहीं'' पर व्यंग्य की छटा देख रहे हैं तो नामवर सिंह क्यों न केशव को अपनी परम्परा का समझे? वे केशव के बहाने आचार्य शुक्ल पर सवाल उठाने लगते हैं और घनानन्द को ही कलावादी बताने लगते हैं। वे लिखते हैं ** आचार्य शुक्ल के मूल्यांकन में छायावादी आग्रह किस सीमा तक अन्तर्निहित हैं, इसे छायावाद से इतर कविता के मूल्यांकन में साथ देखा जा सकता है जो घनानन्द प्रसाद के भी प्रिय कवि थे, उन्हें शुक्ल जी ने भी साक्षात रस की मूर्ति कहा है, प्रयोग वैचियं के कारण उन्हें छायावाद से सम्बद्ध कर दिया। इसके विपरीत केशवदास के मामले में उन्होंने स्पष्ट निर्णय दिया कि केशव को कवि हृदय नहीं मिला था(कविता के नए प्रतिमान पेज ३१) और केशव की महत्ता सिद्ध करने के लिए नामवर सिंह अज्ञेय के कथनों को आप्त वाक्य के रूप में रखते हैं। केशवदास के प्रति नामवर सिंह का अगाध प्रेम कलावादी सरोकारों का प्रतिफलन है। नामवर सिंह अकेले वाम आलोचक मुझे दिखे जिनका कलावादी सम्मोहन इतना गहरा है कि वे उचित और वैचारिक उदाहरण भी नहीं खोज पाते हैं। कलावादी और बुर्जुवा मूल्यों की चाहत ने उन्हें गहरे अवैचारिक अन्धड में फंसा दिया हैआचार्य शुक्ल जैसे लोकवादी आलोचक के विरोध के लिए विशुद्ध जनविरोधी कवि अज्ञेय को लाते हैं। उन्होंने जिस विचारधारा का आवरण ओढ़ रखा है उस विचारधारा में उन्हें एक भी आलोचक नहीं प्राप्त हुआ जो शुक्ल की अवधारणा का खंडन कर सके। कारण साफ है, नामवर सिंह जैसा लुढकालू आलोचक हिन्दी की वाम परम्परा में दूसरा है भी नहीं जो अज्ञेय और आई ए रिचर्ड्स जैसों का साक्ष्य देकर कविता जनवादी जड़ों में माठा डाल दे। नामवर सिंह का असली पक्ष चमत्कार और कलावाद है। इस बात को हिन्दी के सुधी पाठकों ने पहचान लिया था इसलिए वे मुक्तिबोध, और निराला का उल्टा सीधा पाठ करके अपने आपको बचाने का कुत्सित प्रयास करते रहे। उनका असली ध्येय कलावाद भाषाई क्रीड़ा और शब्दों का खेल है जो रीतिकाल में समाप्त हो चुका था मगर नामवर सिंह उसे ढोकर आधुनिक काल में लाना चाहते हैं, इस बात के भी उदाहरण उनकी कविता के नए प्रतिमान में है। शाब्दिक क्रीड़ा को काव्य प्रतिमानों में प्रतिष्ठित करने के लिए वह रघुवीर सहाय से लेकर भरत मुनि तक की दौड़ लगाते हैं मगर एक भी उदाहरण प्रगतिशील कविता का नहीं देते हैं। जितने भी उदाहरण उन्होंने दिए हैं। सब कलावादी और रूपवादियों के हैं। वे लिखते हैं ''क्रीड़ा और लीला का भाव। कवि की सृजनशीलता और प्रयोगशीलता के मूल में यही क्रीड़ा भाव और लीला भाव है'' (कविता के नए प्रतिमान पृष्ठ १५६) यह वही क्रीड़ा भाव है जिसे रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं में प्रयुक्त किया और अंग्रेजी के कवि आउँन ने जिसे ''ज्ञान का खेल'' कहा है, अर्थात् बौद्धिक खिलवाड़ ही कविता का मूल हैइसे प्रयोगशीलता तो हम कह सकते हैं मगर इसे सृजनशीलता कहकर नामवर सिंह ने खुद पर सवालिया निशान लगा लिया है। यह कथन और किताब का यह अध्याय उनके गैर वाम होने की व ओढी हुई प्रगतिशीलता की निशानी है। रघुवीर सहाय बनावटी कवि थे, पत्रकार थे उनके पास न तो कविता की परम्परा थी न उसके रचनात्मक सूत्रों का अता पता था। समाचार निर्माण की प्रक्रिया में सनसनी का बड़ा हाथ होता है। रघुवीर सहाय सनसनी बनाने में सिद्धहस्थ थे अतः उन्होंने भाषाई क्रीड़ा का सफलतम प्रयोग किया और अपने पीछे युवा कवियों की एक ऐसी फौज खड़ी कर गए जो आज भी भाषा के खेल को ही |जुना पक्षधरता समझते हैं और लिखते हैं मगर ऐसे कवियों में कोई भी सफल नहीं हुआ है। नामवर सिंह ने इस खेल को आत्मस्वीकृति दी है मगर वह भी ऐसे कवियों को खत्म होने से नहीं बचा पाए। यहाँ तक की कुंवर नारायण भी बड़े नहीं बन पाए। पुरस्कार पा जाने से कोई बड़ा नहीं होता हैबड़ा कवि तभी बड़ा होता है जब वह जनसरोकारों से जुड़ा हो। मुक्तिबोध नामवर सिंह की लाख कोशिश के बाद भी अज्ञेयवादी नहीं बने, वह जनवादी बने रहे। नामवर सिंह का बस चलता तो उन्हें कलावादी सिद्ध करके ही दम लेते। खेल के सन्दर्भ में कुंवर नारायण की नामवर सिंह प्रशंसा करते हैंमगर कथ्य और आधुनिक मूल्यों के सन्दर्भ में हिन्दी कविता के वे सबसे असफल कवि हैं। नामवर सिंह का कलावाद तमाम हदें तोड़ता हुआ काव्य को कला की अनुकृति बता देता है। वे लिखते हैं अभिनय सुलभ क्रीड़ा वृत्ति द्वारा ही कला का सार्थक प्रयोग सम्भव है'' (कविता के नए प्रतिमान पृष्ठ १६३) यह कथन नामवर सिंह के रीतिवादी होने का खुला प्रमाण है इसी आध्याय में वे चिन्ता भी जाहिर कर रहे हैं कि इस वृत्ति को अभी तक समुचित स्थान नहीं मिला है। इसका आशय है कि नामवर सिंह की चिन्ता कविता में विचारधारा को के लेकर नहीं बल्कि कलावाद की उपेक्षा पर उन्हें दुख है, इसीलिए वे तमाम कुतर्को के साथ वाम समीक्षा मूल्यों और लेखकों को सूली पर चढ़ा देते हैं। जिस काम को राजा महाराजा व सामन्ती शक्तियाँ अंजाम तक नहीं ले जा सकीं उस काम को नामवर सिंह एक झटके में पूरा करने की असफल कोशिश करते हैं।


    कविता के नए प्रतिमान को पढ़ने के बाद संवेदनशील पाठक के पास कुछ बचता नहीं है। यदि आप विचारधारा के लिए इस किताब को पढ़ना चाहते हैं तो मत पढ़िए। वैचारिक रूप से यह जनवादियों के काम की नहीं है। यदि आप इससे कविता की समझ पैदा करना चाहते हैं तो इससे अच्छा है कि आप सीधे कविताओं को पढ़ें। इस किताब से कविता की समझ टूटकर बिखर जाएगी। इसमें इतने अन्तर्विरोध हैं जितने की समाजवाद और फासीवाद के बीच भी नहीं होंगे यह किताब अन्तर्विरोधों का जखीरा है व विचारधारा, पक्षधरता, इतिहासबोध, युगीनता आदि को नकारते हुए उच्च कोटि की साहित्यिक राजनीति का प्रतिपादन किया गया है। जिन प्रतिमानों की बात की गई है इसमें, वे सब विदेशी हैं, अंग्रेजी और रूसी रूपवाद का हिन्दीकरण है। लेकिन इन प्रतिमानों को नया कहकर अपने सगे लोगों की स्थापना व जनवादी कवियों की निन्दा का माध्यम बनाने की कोशिश की गई है। यह इस किताब का मुख्य प्रतिपाद्य है। अर्थात् यह केवल कविता की राजनीति है, प्रतिमान नहीं है।


    नामवर सिंह को अनुभूति शब्द से घृणा है। वे इसे छायावादी शब्दावली मानते हैं (लहक मई २०१५) जबकि कविता का मूल नियामक अनुभूति ही है, अनुभूति ही काव्य को भाषा देती है। मगर कलावादी कविता में अनुभूति की कोई जगह नहीं होती, न ही काव्यभाषा की जरूरत होती हैवे अनुभूति की बजाय खेल और भाषा की बजाय शब्द सजगता पर बल देते हैं। इस सजग प्रयोग को वैधता देने के लिए नामवर सिंह, टी एस इलियट और अभिनव गुप्त जैसे शैव दार्शनिक का वाक्य प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। मगर नामवर सिंह जी को समझना चाहिए अभिनव गुप्त रसवादी थे। वह भी अनुभव व अनुभूति के महत्व को रेखांकित करते थे। केवल एक कथन के । सहारे उन्हें इस भीषण कलावादी खेल में सम्मिलित नहीं किया जा सकता हैजो भी रसवादी होगा वह अनुभूति, विभाव, अनुभाव व साधारणीकरण की प्रक्रिया को वैधता देगा। यदि वह इन्हे वैधता देता है तो निश्चित है कोई भी रचना महज शब्दों का सजग प्रयोग नहीं हो सकती है। उसमे कोई न कोई सामाजिक सरोकार अवश्य अन्तर्निहित होगा। अन्यथा की स्थिति में सामाजिक कविता के साथ या कृति के साथ अपना साधारणीकरण नहीं स्थापित कर पाएगा। यहाँ पर नामवर सिंह चूक गए। इतनी जल्दबाजी दिखा गए कि कला के समर्थन के लिए कलाविरोधी व्यक्ति का उद्धरण लिख गए। जब आपको शब्दों के प्रयोग को ही काव्य समझना था अनुभूति को नकारना था तो किसी दूसरे काव्यशास्त्री का उदाहरण लाना चाहिए। नामवर सिंह इस बात को समझ गए और उन्होंने अगली पंक्ति में अलंकारवादी मम्मट का भी श्लोक दे दिया। मम्मट के साथ उनके कलावाद की संगति बैठ जाती है। अब इस अध्याय के बाद नामवर सिंह प्रगतिशील कवियों की निन्दा और अपने पक्ष के कलाविदियों की महानता घोषित करने में अपनी तर्कशक्ति का अच्छा राजनैतिक प्रयोग करते है। प्रतिमानों की ओट में कैसे जनवाद को खंडित किया जाता है उनके अध्याय काव्य बिम्ब और सपाटबयानी में देखा जा सकता है। नामवर सिंह अपनी किताब कविता के नए प्रतिमान में जितने भी प्रतिमान उद्घोषित करते हैं, वह सब पाश्चात्य काव्यशास्त्र से आयातित प्रतिमान हैं और उन प्रतिमानों को अपने नजदीकियों को थमाकर या इनका श्रेय उन्हें देकर बाकी प्रगतिशील कवियों की निन्दा करने लगते हैं। कहने का आशय है कि प्रगतिशील जनवादी धारा के प्रति उनका समर्पण और समझ दोनों को इस पुस्तक द्वारा बखूबी जाना जा सकता है। बिम्ब हिन्दी में बहुत पहले से प्रयुक्त होते रहे हैं। कबीर और जायसी ने रूपकविधान व अप्रस्तुत विधानों की सहायता से बेहतरीन बिम्बों का प्रयोग किया है। ''भ्रम की टाँटी सबै उड़ानी माया रहे न बाँधी रे'' (सबद) इस बिम्ब में क्या कमी है? तुलसी का रूपकाधीन बिम्ब देखिए ''विकसे सन्त सरोज सब, हरणे लोचन शृंग'' (रामचरित मानस)। लेकिन नामवर सिंह को इन प्रयोगों से कोई मतलब नहीं है। वे हिन्दी में बिम्ब का श्रेय केदारनाथ सिंह को देते हैं। वे लिखते हैं “काव्य के मूल्यांकन के प्रतिमान के रूप में बिम्ब को प्रतिष्ठित करने का यह प्रस्ताव हिन्दी में सम्भवतः पहला है।'' इसका आशय हैकि बिम्ब को कविता की अनिवार्यता न मानने के बावजूद भी नामवर सिंह को बिम्ब की चर्चा बहुत जरूरी लगी क्योंकि उन्हें अपने लोगों विशेषकर केदारनाथ सिंह, विजयनारायण देव साही, अज्ञेय आदि को प्रतिष्ठित करना था और किसी न किसी बहाने जनवादी कवियों की निन्दा करना था। इसके बाद वह पृष्ठ संख्या ११८ में केदारनाथ सिंह की एक कविता देते हैं और इस कविता की शान में स्तुतिपूर्ण कसीदे पढ़ने लगते हैं इस अनागत को करें क्या / जो अक्सर बिना सोचे / बिना जाने / सड़क पर चलते अचानक दिख जाता है'' नामवर सिंह इस कथन पर गदगद हैं। वे केदारनाथ सिंह की कविताई पर लट्ट होकर उसे मूर्तीकरण का उदाहरण कह देते है। इसे वे सुसंगत बिम्ब कहते हैं जबकि यह भी नकली कल्पनाओं के द्वारा किया गया भाषिक चमत्कार ही है। इसमें संवेदित होने जैसी कोई बात ही नहीं है। इसके विपरीत वे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बेहतरीन व यथार्थ बिम्बों में असंगति खोजकर आलोचना करने लगते हैं। ''लोकतन्त्र को जूते की तरह / लाठी में लटकाए / भागे जा रहे हैं सभी / सीना फुलाए (कविता के नए प्रतिमान पृष्ठ १२०) इस बिम्ब की खूबसूरती व व्यंग्यपरकता को नामवर सिंह ''आलोचकों का दृष्टि दोष'' कहते हैं। इसका मूल कारण है, इस बिम्ब में चमत्कार के साथ ही भाषा का अपना सौन्दर्य भी है, यथार्थ की चमकीली आभा भी है। लाठी में जूता लटकाकर चलने वाले आम गंवई लोग अमूमन दिख जाते हैंनामवर सिंह इस कविता में चिह्नित बुर्जुवा पूँजीपरस्त लोकतंत्र को नहीं देख पा रहे बल्कि केदारनाथ सिंह की हवा-हवाई कल्पना उन्हें अति आकर्षित कर रही है। यही उनकी दृष्टि की कमजोरी है। ऐसे उदाहरण कविता के नए प्रतिमान में भरे पड़े हैं जहां नामवर सिंह वैचारिकता से आपूरित व यथार्थवादी कविताओं की निन्दा करते हैं और कलावादी खेल व अवैचारिक कवियों की स्तुति करते हैं। केदारनाथ सिंह तब भी थोड़ा बहुत ठीक है। नामवर सिंह अज्ञेय की कविता बाजरे की कलगी के बिम्ब पर भावुकता की हद तक फिदा हो जाते हैं और कुछ छायावादी और प्रगतिशील कविता की निन्दा भी करते हैं। उन्हें केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की कविता में तर्क युक्ति का अभाव दिखता है और अज्ञेय की कविता तर्क युक्ति से कसी दिखती है। यह नामवर सिंह की सबसे बड़ी कमजोरी है लोकधर्मी कविता के बिम्ब किसी भी धारा के कवियों से कमतर नहीं थे। केदारनाथ अग्रवाल की केन, चना, मजदूर, आदि पर लिखी गई कविताओं व उनमे अन्तर्मुक्त सांस्कृतिक अवस्थितियाँ नामवर सिंह की अभिरुचि के अनुकूल नहीं है इसलिए पूरी किताब में गैरवाम, प्रगतिविहीन कवियों को उपकृत करके कलावादी, मध्यमवर्गीय कविताओं को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गई है। नामवर सिंह ने कविता के साथ ही यह अन्याय नहीं किया बल्कि नई कहानी के चयन में भी अपनी विचारहीनता और रिश्तों को तरजीह दी है। इतिहास में ऐसी गड़बड़ियाँ होती रहती हैआलोचक कितना भी बड़ा हो उसके निर्णयों पर इतिहास जरूर सवाल करता है और निर्णयों को उलट भी देता है। अब आलोचना 'दिल्ली की केन्द्रिकता का विरोध करके विश्वविद्यालयों से अवमुक्त होने लगी है। जाहिर है ऐसे सवाल उठाए जाएंगे और उन गलतियों का परिमार्जन होगा जिन्हें नामवर सिंह जैसे आलोचकों के अवैचारिक विचलनों ने उत्पन्न किया है। नामवर सिंह व्यावहारिक रूप से भी वामपंथी नहीं रहे, वे फासिस्ट लेखन और वाम लेखन में भेद नहीं कर पाए। भालचन्द नेमाड़े के हिन्दुत्व की प्रशंसा करना और किसी हत्यारे बाहुबली को लेखक बना देने का भी कुकर्म वे कर चुके हैं। ऐसे विचलनों को आज का पाठक समझता है।


                                                                                                                                    मो.नं. : 9838610776