कविता - बाजार की बोली - राहुल कुमार बोयल
मेरे हाथ किसी के खून से सने नहीं हैं
किसी मुफ़लिस की छाती पर
मेरे पांवों के निशान कभी बने नहीं हैं
किसी मोहल्ले का वेफिक्र आवारा भी नहीं हूँ
आँखों में मेरी कोई फरेब भी नहीं पलता
पर दम-ब-दम ये अहसास रौंदता है मुझे
खरे खयालों की इतनी गहमागहमी के बाद भी
जन्दिगी इतनी खोटी कैसे हुई है!
कोई सिक्का तमन्नाओं का क्यों नहीं चलता
बाज़ार अपनी बोली कभी क्यों नहीं बदलता?
राहुल कुमार बोयल - मो.नं. : ७७२६०६०२८७