लघुकथा - स्त्री-पुरुष समानता - डॉ. पूरनसिंह
_'मैं स्त्री-पुरुष की समानता में विश्वास करती हूँ और चाहती कि सभी लोग ऐसा ही करें। राईट।' विजय सिंह के घर में हम सभी बैठे थे। चाय पानी चल रहा था। हम सभी में तीन महिलाएं और चार पुरुष थे। शुरुआत सुलोचना जी ने की थी
'तो पहनने ओढ़ने और आचार व्यवहार में समानता होनी चाहिए।' गंगाशरण त्रिपाठी जी बोले थे 1
'श्योर', देविका सिंह बोली थी।
'तो फिर आप मांग क्यों भरती हैं। चूड़ियाँ, बिछुआ और मंगलसूत्र क्यों लटकाती हैं।
___क्या कोई पुरुष ऐसा करता है?' तर्कशास्त्र की किताब मैंने खोल दी थी।
'ये तो स्त्री का सिंगार है।' सुलोचना जी कुतर्क पर उतर आईं थी।
___'नहीं, दासत्व की निशानी है।' गंगाशरण त्रिपाठी जी भरे बैठे थे1
'कैसे', देविका सिंह का एक दूसरा तीर था।
'ऐसे कि पति की मृत्यु के पश्चात स्त्री को मंगलसूत्र उतारना पड़ता है, चूडिया तोड़नी पड़ती है, बीछुआ उतार देने पड़ते हैं और वह जीवनपर्यंत मांग में सिन्दूर नहीं भर सकती। क्या आप बताएंगी कि कोई पुरुष अपनी पत्नी की मृत्यु पश्चात ऐसा कोई काम करता है।' पियरे र्नियार की सी बुद्धि थी मेरी1
___अब वे तीनो महिलाएं मुझे देख रही थी कि गंगाशरण त्रिपाठी जी बोले थे, 'यार समानता चाहती हो तो कुछ तो निर्णय लेने ही होंगे।'
वे तीनों महिलाएं सोचने लगी थी।
और इनका ऐसा सोचना ही तो उन्हें स्त्री पुरुष समानता की पहली पायदान पर पैर रखने को मजबूर करेगा।
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