कविता - सिसकती रातें - डा.ऋतु त्यागी
सिसकती रातें
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सिसकती रातों के सफ़र पर
निकलने से बचना
आँखें सूजकर गोलगप्पा हो जातीं हैं
और छाती धड़धडाती रेलगाड़ी
पलकों से बे-सब्र आशिक़ से
रिसते हैं आँसू
और कम-बख़्त नींद
गिलहरी -सी
भाग जाती है सरपट ।
डा.ऋतु त्यागी