कविता- गाँव - मुकेश कुमार ,
शोधार्थी (एम. फिल), हिन्दी विभाग, अम्वेडकर भवन हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय
आज भी पीछे छूट गया है गाँव ,
वहीं दबा दिये गये हैं सारे सबूत
जिसे खोदने का मतलब : अपनी अस्मिता की खोज है
मुंडेर पर बैठा देखता हूँ -------
शहर सिर्फ गाँव के खिलाफ एक असफल मौज है
जो हररोज हमें आदमियों से मिलाता तो जरूर है
लेकिन उसमें अपनापन गायब है,
क्या किन्नर-किन्नरों के देवताओं को देखा है ?
या पहाड़ी ढलानों पर गाय को चरते देखा है ?
पीठ पर लादे हुए बच्चों की माँ को
क्या कभी सड़कों पर काम करते देखा है?
कभी धुएँ से गंधायी रोटी खाई है?
या किसी औरत का दुपट्टा देखा है?
धान की खेती देखी है?
या मटर के दाने और गेहूँ के डंठल?
या दिनदहाडे रात का सन्नाटा हआ है?
रेत से रिसता पानी देखा है ,
या कभी गरीबी में गीला आटा हुआ है?
अगर नहीं देखा है तो जरूर देखें :
क्योंकि वो आज भी
अपनी संस्कति और संस्कार में गाँव है
शहर अपने नयेपन में शहर है और
गाँव अपनी संस्कृति, संस्कार और परम्परा का नाम है
जिसमें एक तरफ़
तंग गलियों के अंदर ही अंदर कमरे हैं
तो दूसरी ओर
सहृदयता और मानवता
गाँव के छोटे छोटे घरों में मिलते हैं,
घर कमरों में तबदील हो गये हैं
जो भावनाओं से खाली पुराने खंडहर की तरह है
जो अपने में भीतर ही भीतर हिलते हैं
हम है कि
बड़े आराम से
खिड़कियों से दिखती जिन्दगी का जायजा लेते हैं
कचनार के फूल,
भित्ति के खुटियों पर टंगी गठरियाँ,
आम के पेड़ के नीचे वह चौपाल,
दरवाजे की चौखटे,
वह गाय बांधने का खूटा,
सब गायब हो रहा है धीरे धीरे
सब छूट गया है पीछे शहर जाने की होड़ में,
लोग ढूंढते है फिर अपनापन अजनबियों की दौड़ में,
जिन्दगी अव पत्थर हो गई है
और हम है कि उसे हीरा समझकर तराशते रहते हैं,
नहीं कहता हूँ मैं अब इसे गाँव,
क्योंकि इसके संस्कार मिट्टी हो गये हैं
वह मिट्टी अब तक उपजाऊ है ,
लेकिन हमारे बोये वीज मिट्टी में खो गये हैं!
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