कविता - न जाने क्यूँ? - माधुरी चित्रांशी
न जाने क्यूँ?
न जाने क्यूँ?
अंधेरी रात की-
तनहाइयों से मुझको,
कुछ अपनापन सा-
लगने लगा है।
उदास चाँद की-
गुमसुम सी चाँदनी __
और-
पलकों पर ठहरे-
आँसुओं का भी-
कुछ पुराना सा रिश्ता,
पनपने लगा है।
न जाने क्यूँ?
खुशियों में आकण्ठ
डूबी रहती थी,
जो ज़िन्दगी,
हर तरफ-
विरान सन्नाटा,
पसरने लगा है।
पेड़ से गिरते पत्तों की,
खड़खड़हाट में भी,
तुम्हारी मोहक हँसी का-
कुछ तो सबब,
बनने लगाहै।
न जाने क्यूँ?
सावन के गरजते-
बादलों में,
मुस्कान तुम्हारी,
बिजली सा दर्पण बन,
चमकने लगा है।
और मेरी पथराई आँखों में-
चेहरा तुम्हारा-
स्वर्ण कमल बन,
उभरने लगा है।
न जाने क्यूँ?
अंधेरी रात की,
तनहाइयों से मुझको,
कुछ अपनापन सा,
लगने लगा है।
माधुरी चित्रांशी